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________________ २००] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, २, २२. समाणमहियरणं णत्थि ति सुत्तमिदमसंबद्धमिदि ? ण एस दोसो, तिस्से सेढीए असंखेज्जदिमागस्स सेढीए वा आयामो त्ति णेवं वत्तव्यं, भिण्णाहियरणता विसेसणस्स फलाभावादो च । किंतु सेढीए असंखेज्जदिभागस्स जा सेढी पंती तिस्से सेढीए आयामो त्ति वत्तव्यमिदि । असंखेज्जाओ जोयणकोडीओ वि पदरंगुल-घणंगुलादिभेदेण असंखेज्जवियप्पाओ त्ति सेढिपढमवग्गमूलादिहेटिमसंखापडिसेहटुं 'पढमादियाणं सेढिवग्गमूमणं संखेज्जाणं अण्णोण्णब्भासेण' ति वुत्तं । तत्थ सेढिपढमवग्गमूलमादिं काऊण हेहा वारसण्हं वग्गमूलाणं अण्णोण्णब्भासो विदियपुढविणेरइयमिच्छाइद्विदयपमाणं होदि । तं चेव आदि करिय हेट्ठा दसण्हं वग्गमूलाणं अण्णोण्णभासे कदे तदियपुढविमिच्छाइट्ठिदव्यपमाणं हवदि । तं चेव आदि करिय अट्टण्हं वग्गमूलाणं संवग्गो चउत्थपुढविमिच्छाइट्ठिदव्यपमाणं हवदि । छण्हं सेढिवग्गमूलाणं संवग्गो पंचमपुढविदव्वं होदि। तिण्हं संवग्गो छट्ठमपुढविदव्वं होदि । दोण्हं संवग्गो सत्तमपुढविदव्वं होदि । एत्तियाणं वग्गमूलाणं स्त्रीलिंग निर्देश है। अतः इन दोनों पदोंका समान अधिकरण नहीं है, इसलिये यह पूर्वोक्त सूत्र असंबद्ध है? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यहां पर 'तिस्से सेढीए ' इस पदका श्रेणीके असंख्यातवें भागका आयाम अथवा जगश्रेणीका आयाम ऐसा अर्थ नहीं करना चाहिये, क्योंकि, इससे भिन्नाधिकरणत्व प्राप्त हो जाता है और विशेषणकी कोई सार्थकता नहीं रहती है । किंतु प्रकृतमें 'जगश्रेणीके असंख्यातवें भागकी जो श्रेणी अर्थात् पंक्ति है उस श्रेणीका आयाम' ऐसा अर्थ करना चाहिये । असंख्यात कोटि योजन भी प्रतरांगुल और घनांगुल आदिके भेदसे असंख्यात प्रकारका है, इसलिये जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूल, द्वितीय वर्गमूल आदि नीचेकी संख्याका प्रतिषेध करनेके लिये सूत्र में · जगश्रेणीके प्रथमादि संख्यात वर्गमूलोंके परस्पर गुणा करनेसे' इतना पद कहा है। उनमेंसे यहां जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूलसे लेकर नीचेके बारह वर्गमूलोंके परस्पर गुणा करनेसे जितनी संख्या उत्पन्न हो उतना दूसरी पृथिवीके नारक मिथ्यादृष्टि राशिका प्रमाण है। तथा जगश्रेणीके उसी पहले वर्गमूलसे लेकर दश वर्गमूलेोके परस्पर गुणा करने पर तीसरी पृथिवीके नारक मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण होता है। तथा जगश्रेणीके उसी प्रथम वर्गमूलसे लेकर आठ वर्गमूलोंके परस्पर गुणा करने पर जो राशि आवे उतना चौथी पृथिवीके नारक मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण है। तथा जगश्रेणीके प्रथमादि छह वर्गमूलोंके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उतना पांचवी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण है । तथा जगश्रेणीके प्रथमादि तीन वर्गमूलोंके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उतना छठी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण है। तथा पहले और दूसरे वर्गमूलके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उतना सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण है। शंका- इतने इतने वर्गमूलोंके परस्पर गुणा करने पर द्वितीयादि पृथिवियोंके मिथ्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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