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________________ १, २, २२.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं [२०१ संवग्गं कदे विदियादिपुढविमिच्छाइट्ठीणं दव्वपमाणं होदि त्ति कधं जाणिजदे ? आइ. रियपरंपरागय-अविरुद्धोवदेसादो जाणिजदि । वारस दस अट्ठेव य मूला छत्तिय दुगं च' णिरएसु । 'एक्कारस णव सत्त य पण य चउक्कं च देवेसु ।। ६७ ॥ एदासिं अवहारकालपरूवयगाहासुत्तादो वा परियम्मपमाणादो वा जाणिजदे । एदासिं पुढवीणं दव्यमाहप्पजाणावणहूँ किंचि अत्थपरूवणं कस्सामो । तं जहाविदियपुढविमिच्छाइदिव्यं तदियपुढविमिच्छाइहिदव्वादो ताव उप्पाइज्जदे । वारस दृष्टि द्रव्यका प्रमाण होता है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान- आचार्य परंपरासे आये हुए अविरुद्ध उपदेशसे जाना जाता है कि इतने इतने वर्गमूलोंके परस्पर गुणा करने पर द्वितीयादि पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण होता है। अथवा ___ नारकियोंमें द्वितीयादि पृथिवियोंका द्रव्य लानेके लिये जगश्रेणीका बारहवां, दशवां, आठवां, छठा, तीसरा और दूसरा वर्गमूल अवहारकाल है और देवोंमें सानत्कुमार आदि पांच कल्पयुगलोंका द्रव्य लानेके लिये जगश्रेणीका ग्यारहवां, नौवां, सातवां, पांचवां और चौथा वर्गमूल अवहारकाल है ॥ ६७ ॥ ___ इन अवहारकालोंके प्ररूपण करनेवाले इस गाथा सूत्रसे जाना जाता है। अथवा, परिकर्मके वचनसे जाना जाता है कि जगश्रेणीके प्रथमादि इतने इतने वर्गमूलोंके परस्पर गुणा करनेसे द्वितीयादि पृथिवियोंका द्रव्य आता है। विशेषार्थ- एक वर्गात्मक राशिके प्रथम आदि जितने वर्गमूल होंगे उनमेंसे जिस वर्गमूलका उक्त वर्गात्मक राशिमें भाग देनेसे जो लब्ध आयगा वह, जिस वर्गमूलका भाग दिया उस वर्गमूलतक प्रथमादि वर्गमूलोंके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न होगी, उतना ही होगा । उदाहरणार्थ ६५५३६ में उसके चौथे वर्गमूल २ का भाग देनेसे ३२७६८ लब्ध आते हैं। अब यदि प्रथमादि चार वर्गमूलोंका परस्पर गुणा किया तो भी ३२७६८ प्रमाण ही राशि उत्पन्न होगी। ६५५३६ का पहला वर्गमूल २५६, दूसरा १६, तीसरा ४ और चौथा २ है। अब इनके परस्पर गुणा करनेसे २५६ ४ १६४४४२ = ३२७६८ ही आते हैं। पर नरकोंमें जो अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा राशियां बतलाई हैं उनके निकालने में कल्पित वर्गमूल लिये गये हैं, इसलिये ही वहां यह नियम नहीं घटाया जा सकता है। अब इन पृथिवियोंके द्रव्यके महत्त्वका ज्ञान करानेके लिये किंचित् अर्थप्ररूपणा करते हैं। वह इसप्रकार है- उसमें भी पहले दूसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यको तीसरी पृथिवीके १ प्रतिषु 'दु पंच' इति पाठः । इयं गाथा पूर्वमपि ६६ क्रमाङ्कनागता। २ तत्तो (देवेषु ) एगार-णव-सग-पण-चउणियमूलभाजिदा सेदी। गो. जी. १६२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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