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________________ ४६४ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, २, १६९. एत्थ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागवयणं सावहारपरूवणं ओघपमाणपडिसेहफलं । कुदोवगम्मदे ? संगह परिहारेण पज्जवणयावलंबणादो । एत्थ अवहारकालो बुम्बदे | ओघ - असंजदसम्माइट्ठिअवहारकालं आवलियाए असंखेजदिभागेण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते तेउलेस्सियअसंजदसम्म इडिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेजदिभाएण गुणिदे पम्मलेस्सिय असं जद सम्माइद्विअवहार कालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे काउलेस्सियअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि । तहि आवलियाए असंखेजदिभागेण गुणिदे किण्हलेस्सियअसंजद सम्माइट्ठिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभागेण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते णीललेस्सियअसंजदसम्म इट्ठिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे सुकलेस्सियअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि । सग-सगअसंजदसम्म इडिअवहारकाले आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे सग-सगसम्मामिच्छाइट्ठिअवहार कालो होदि । ते गुणस्थान में जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। इन जीवोंके द्वारा अन्तर्मुहूर्त कालसे पल्योपम अपहृत होता है ।। १६९ ॥ इस सूत्र में अवहारकालसहित पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण इस वचनका प्ररूपण ओघप्रमाणके प्रतिषेध करनेके लिये दिया है । शंका- यह कैसे जाना जाता है ? समाधान - संग्रहनयका परिहार करके पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन लेने से यह जाना जाता हैं । अब यहां पर अवहारकालका प्ररूपण करते हैं- ओघ असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागले भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसीमें मिला देने पर तेजोलेश्या से युक्त असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलीके असंख्याभाग गुणित करने पर पद्मलेश्याले युक्त असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है । इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर कापोतलेश्याले युक्त असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है । इसे आवली के असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर कृष्णलेश्या से युक्त असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है । इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसीमें मिला देने पर नीललेश्या से युक्त असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है । इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर शुक्ललेश्या से युक्त असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इन अपने अपने असंयतसम्यग्दृष्टियों के अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर अपने अपने सम्यग्मिथ्या• दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इन अपने अपने सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके अवहारकालको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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