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________________ १८२] छक्खंडागमे जीवट्ठाण [ १, २, १९. माणिजदे । तं जहा- हेट्टिमविरलणरूवाहियमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणम्हि केवडियरूवपरिहाणिं लभामो त्ति रूवाहियहेट्ठिमविरलणाए जगसेढिछट्ठवग्गमूलमोवट्टिय लद्धं तम्हि चेव अवणिदे सेढिविदियवग्गमूलं तदियादिचउण्हं वग्गाणमण्णोण्णब्भासेणुप्पण्णरासिम्हि रूवाहियसेढितदियवग्गमूलं पक्खिविय अवहिदएगभागो तिण्हं पुढवीणं अवहारकालो होदि । तेण जगसेढिम्हि भागे हिदे पंचमादितिण्हं हेट्ठिमपुढवीणं मिच्छाइट्ठिदव्वमागच्छदि। पुणो जगमेढिम्हि अट्ठमवग्गमूलं विरलेऊग जगसेटिं समखंडं करिय दिण्णे रू पडि चउत्थपुढविमिच्छाइट्ठिदव्यं पावेदि । पुणो चउत्थपुढविमिच्छाइट्ठिदव्वं पंचमादिहेहिमतिपुढविमिच्छाइदिव्वेहि ओवट्टिय लद्धं हेट्ठा विरलिय च उत्थपुढविदव्वं उवरिमविरलणाए पढमरूबोवरि हिदं समखंडं करिय दिण्णे पंचमादिहेट्ठिमतिपुढविमिच्छाइटिविरलनमात्र स्थान जाकर यदि एककी हानि प्राप्त होती है तो संपूर्ण उपरिम विरलनों में कितनी हानि प्राप्त होगी, इसप्रकार त्रैराशिक करके एक अधिक अधस्तन विरलनसे जगश्रेणीके छठे वर्गमूलको अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उसे उसी जगश्रेणीके छठे वर्गमूलमेंसे घटा देने पर जो आता है वह जगश्रेणीके तृतीय वर्गमूल आदि चार वर्गों के परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसमें एक अधिक तृतीय वर्गमूलको मिलाकर जो जोड़ आवे उससे जगश्रेणीके द्वितीय वर्गमूलको भाजित करने पर जो एक भाग लब्ध आवे उतना होता है और यही पूर्वोक्त तीन पृथिवियोंका अवहारकाल है। उक्त अवहारकालसे जगश्रेणीके भाजित करने पर पांचवीं आदि तीन पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण आता है। उदाहरण-२०४८ २०४८ अधस्तन विरलन १३ में १ जोड़कर २१ होते १ ३२ वार; हैं। यदि इतने स्थान जाकर उपरिम विर लनमें १ की हानि होती है तो संपूर्ण उपरिम २०४८:१५३६ विरलनमें कितनी हानि होगी, इसप्रकार त्रैराशिक करने पर ९६ हानिरूप अंक आते हैं । इसे उपरिम विरलन ३२ मेंसे घटा देने पर १२८ आते हैं। इसका जगश्रेणीमें भाग पर ३५८४ प्रमाण पांचवी आदि तीन प्रथि वियोंका मिथ्यादृष्टि द्रव्य आता है। अनन्तर जगश्रेणीके आठवें वर्गमूलको बिरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति जगश्रेणीको समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति चौथी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है। पुन: चौथी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यको पांचवी आदि नीचेके तीन पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि द्रव्यसे अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उसे नीचे विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके ऊपर उपरिम बिरलनके प्रथम एक पर स्थित चौथी पृथिवीके द्रव्यको समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर १५३६ १२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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