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________________ १, २, १९.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं [१८१ पंचमपुढविमिच्छाइविदव्यपमाणं पावेदि । पुणो छट्ठ-सत्तमपुढविमिच्छाइहिदव्वेहि पंचमपुढविमिच्छाइविदव्वम्हि भागे हिदे सेढितदियवग्गमूलादीणं हेट्ठा चउण्हं वग्गाणं अण्णोण्ण भासेणुप्पण्णरासिं रूवाहियसेढितदियवग्गमूलेण खंडिदेयखंडमागच्छदि । पुणो वि तं विश्लेऊण उरिमविरलणेगरूवधरिदपंचमपुढविदव्यं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि छट्ठ-सत्तमपुढविमिच्छाइट्ठिदव्यपमाणं पावेदि । पुणो तमुवरिमविरलणम्हि सुण्णट्ठाणं मोनूण पंचमपुढविमिच्छाइटिदव्यस्सुवरि परिवाडीए पक्खित्ते हेट्टिमविरलगमेत्तउवरिमविरलणरूवेसु पंचम छट्ठ-सत्तमपुढविमिन्छाइहिदव्यपमाणं पावेदि एगरूवपरिहाणी च लब्भदि । पुणो तदणंतरउवरिमरूबोवरिदिपंचमपुढविमिच्छाइद्विदव्वं हेहिमविरलणाए समखंडं करिय दिपणे भवं पडि छट्ठ-सत्तमयुढविमिच्छाइट्ठिदव्यं पावेदि । पुणो तमुवंरिमविरलणाए सुण्णट्ठाणं मोत्तूण हेट्ठिमविरलणमेत्तपंचमपुढविमिच्छाइट्ठिदव्याम्हि पक्खित्ते रूवं पडि पंचम-छह-सत्तमपुढविमिच्छाइट्ठिदव्यं पावेदि विदियरूवपरिहाणी च लब्भदि । एवं पुणो पुणो कायव्यं जाव उवरिमविरलणा परिसमत्तेत्ति । एत्थ परिहीणरूवपमाण एकके ऊपर जगश्रेणीको समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति पांचवी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है। अनन्तर छठी और सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यप्रमाणसे पांचवी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यमें भाग देने पर, जग वर्गमूलसे लेकर नाँचेके चार वर्गौके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसे जगश्रेणीके एक अधिक तृतीय वर्गमूलसे खंडित करने पर एक खंड आता है। पुनः उसे विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके ऊपर उपरिम विरलनके एकके प्रति प्राप्त पांचवी पृथिवीके द्रव्यको समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति छठी और सातवीं पृथिवीके द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है । अनन्तर उपरिम विरलनमें उस शून्यस्थानको (जिसके द्रव्यको अधस्तन विरलनमें वांटा है उसे) छोड़कर पांचवी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यके ऊपर क्रमसे प्रक्षिप्त करने पर अधस्तन विरलनप्रमाण उपरिम विरलनके अंकों पर पांचवी, छठी और सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है और एककी हानि प्राप्त होती है। पुनः तदनन्तर उपरिम विरलनके एक अंक पर स्थित पांचवी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यको अधस्तन विरलनके प्रत्येक एकके ऊपर समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति छठी और सातवीं पृथिवीके मिथ्याष्टि व्यका प्रमाण प्राप्त होता है। अनन्तर उपरिम विरलनमें उस शून्यस्थानको ( जिसके द्रव्यको अधस्तन विरलनमें वांटा है उसे ) छोड़कर अधस्तन विरलनप्रमाण छठी और सातवीं पृथिवीके द्रव्यको पांचवी पृथिवीके द्रव्यमें मिला देने पर प्रत्येक एकके प्रति पांचवी, छठी और सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है और दूसरे अंककी हानि भी प्राप्त होती है। इसप्रकार जबतक उपरिम घिरलन समाप्त होवे तबतक पुनः पुनः करना चाहिये। अब यहां पर हानिरूप विरलनोंका प्रमाण लाते हैं। वह इसप्रकार है-उपरिम विरलनमें एक अधिक अधस्तन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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