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________________ १, २, १९.] दवपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं [१८३ दव्वं पावेदि । एत्थ पुव्वं व समकरणं कादव्यं । एत्थ परिहीणरूवाणं पमाणमाणिज्जदे । तं जहा- हेट्ठिमविरलणरूवाहियमेतद्धाणं गंतूण जदि उवरिमविरलणम्हि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणम्हि केवडियरूवपरिहाणिं लभामो त्ति रूवाहियहेट्ठिमविरलणाए जगसेढिअट्ठमवग्गमूलमोवट्टिय लद्धं तम्हि चेव अवाणदे चउत्थ-पंचम-छट्ठ-सत्तमपुढवीणं सत्तमपुढविमिच्छाइडिसलागाहि जगसेढिविदियवग्गमूलमोवाट्टिय चउत्थपुढविआदिहेडिममिच्छाइविदधस्स अवहारकालो होदि । तेण जगसेढिम्हि भागे हिदे चउण्डं पुढवीणं मिच्छाइद्विदव्यमागच्छदि।। पुणो जगसेढिदसमवग्गमूलं विरलेऊण जगसेढिं समखंडं करिय दिण्णे रूपं पडि प्रत्येक एक पर पांचवी आदि नीचेकी तीन पथिवियोंके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है। यहां पर समीकरण पहले के समान कर लेना चाहिये। अब यहां पर हानिरूप अंकोंका प्रमाण लाते हैं। वह इसप्रकार है- उपरिम विरलनमें एक अधिक अधस्तन विरलनमात्र स्थान जाकर यदि उपरिम विरलनमें एककी हानि प्राप्त होती है तो संपूर्ण उपरिम विरलनमें कितनी हानि प्राप्त होगी, इसप्रकार त्रैराशिक करके एक अधिक अधस्तन विरलनसे जग. श्रेणीके आठवें वर्गमूलको अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उसे उसी जगश्रेणीके आठवें वर्गमूल. मेंसे घटा देने पर जो आता है वह चौथी, पांचवी, छठी और सातवीं पृथिवीकी सातवी पृथिवीकी अपेक्षा की गई मिथ्यादृष्टि शलाकाओंसे जगश्रेणीके द्वितीय वर्गमूलको अपवर्तित करके जो लब्ध आता है उतना होता है। और यही चौथी आदि नीचेकी चार पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका अवहारकाल है। उक्त अवहारकालसे जगश्रेणीके भाजित करने पर चार प्रथिवियोंके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण आता है। उदाहरण-४०९६ ४०९६ अधस्तन विरलन १३ में १ जोड़ने पर २१ १ १६ वार होते हैं। यदि इतने स्था ४०९६ : ३५८४ = दु विरलनमें १ की हानि होती है तो संपूर्ण उपरिम विरलन १६ में कितनी हानि होगी, ३५८४ ५१२ इसप्रकार त्रैराशिक करने पर १६६२ हानिरूप अंक आते हैं। इसे उपरिम विरलन १६ मेंसे घटा देने पर १२८ होता है जो सातवीं ६५५३६ : १२. = ७६८०, पृथिवीकी अपेक्षा की गई चौथी आदि चार पृथिवियोंकी मिथ्यादृष्टि शलाकाओं १+२+४+८= १५ से जगश्रेणीके द्वितीय वर्गमूल १२८ को अपवर्तित करने पर जितना आता है उतनेके बराबर होता है। इससे ६५५३६ प्रमाण जगश्रेणीके भाजित करने पर ७६८० प्रमाण चौथी आदि चार पृथिवियोंका मिथ्यादृष्टि द्रव्य आता है। अनन्तर जगश्रेणीके दशवें वर्गमूलको विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके ऊपर जगश्रेणीको समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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