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________________ १, २, १९.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं [ १८५ तत्तियमेतं । तेण जगसेढिम्हि भागे हिदे पंचपुढविमिच्छाइद्विदधमागच्छदि । पुणो सेढिवारसवग्गमूलं विरलेऊण जगसेढिं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि विदियपुढविमिच्छाइट्ठिदव्यं पावेदि । हेहिमपंचपुढविदव्वेण तमोवट्टिय लद्धं विरलिय उवरिमविरलणपढमरूवोवरि हिदविदियपुढविमिच्छाइद्विदव्यं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि तदियादिपंचपुढविमिच्छाइदिव्यं पावेदि । तमुवरिमविरलकोवरि द्विदविदियपुढविमिच्छाइद्विदच्चस्सुवरि पक्खिविय समकरणं करिय परिहाणिरूवाणि आणेयव्याणि । तेसिं पमाणमेगवारेणाणिजदे । तं जहा-रूवाहियहेट्ठिमविरलणमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लम्भदि तो उवरिमविरलणम्हि केवडियरूवपरिहाणि पेच्छामो ति रूवाहियहेहिम विरलणाए सेडिवारसवग्गमूलमोवट्टिय लद्धं तम्हि चेव सरिसच्छेदं काऊण अवणिदे तन्मात्र उक्त भागहारका प्रमाण है । उक्त भागहारसे जगश्रेणीके भाजित करने पर तृतीयादि पांच पृथिधियोंके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण आता है। उदाहरण-१६ + ८+ ४ +२+ १ = ३१, १२८ : ३१ = ६५५३६ : १२८ = १५८७२ तृतीयादि पांच पृथिवियोंका मिथ्यादृष्टि द्रव्य । अनन्तर जगश्रेणीके बारहवें वर्गमूलको विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति जगश्रेणीको समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति दूसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है। अनन्तर उस दूसरी पृथिवीके द्रव्यको नीचेकी तीसरी आदि पांच पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि द्रव्यसे अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उसका विरलन करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति उपरिम विरलनके प्रथम अंक पर स्थित दूसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यको समान खण्ड करके दे देने पर अधस्तन विरलनराशिके प्रत्येक एकके प्रति तीसरी आदि पांच पृथिवियोंके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है । पुनः इस अधस्तन विरलनके प्रति प्राप्त द्रव्यको उपरिम विरलनके प्रति प्राप्त दूसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यके ऊपर प्राक्षिप्त करके पहलेके समान समीकरण करके हानिरूप अंक ले आना चाहिये। आगे उन्हीं हानिरूप अंकोंका एकवारमें प्रमाण लाते हैं। जैसे उपरिम विरलनमें एक अधिक अधस्तन विरलनमात्र स्थान जाकर यदि एककी हानि प्राप्त होती है तो संपूर्ण उपरिम विरलनमें कितनी हानि प्राप्त होगी, इसप्रकार त्रैराशिक करके एक अधिक अधस्तन विरलनके प्रमाणसे जगश्रेणीके बारहवें वर्गमूलको अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उसे समान छेद करके उसी जणश्रणीके बारहवें वर्गमूलमेंसे घटा देने पर द्वितीयादि छह पृथिषियोंका अवहारकाल प्राप्त होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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