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________________ १.०] छक्खंडागमे जीवाणं [ १, २, १४. वे कोडि सत्तवीसा होति सहस्सा तहेव णवणउदी। चउसद अट्ठाणउदी परिसंखा होदि विदियगुणा ॥ ५३ ॥ अंकदो वि २२७९९४९८ । उवसामग-खवगपमाणपरूवणा पुव्वं व भाणिदया। णवरि 'सजोगिकेवली अद्धं पडुच्च संखेज्जा' एदस्स परूवणा अण्णहा हवदि । तं जहा अट्ठसमयाहियछमासाणं जदि अट्ठसमयमेत्तो सिद्धकालो लब्भदि तो चत्तारिसहस्स-सत्तसद-एगूणतीसमेत्त-अट्ठसमयाहिय-छम्मासाणं केत्तियो सिद्धकालो लब्भदि त्ति तेरासिए कदे सत्ततीससहस्स अट्ठसद-वत्तीसमेत्तसिद्धसमया लब्भंति । एदम्हि कालम्हि संचिदसजोगिजिणपमाणमाणिज्जदे । तं जहा- अट्ठसु समएसु चोद्दस चोद्दस सजोगिजिणा होति त्ति कट्ट जदि अण्हं समयाणं बारहोत्तरसयमेत्ता सजोगिजिणा लब्भंति तो ससतीससहस्स-अट्ठसद-वत्तीसमेत्तसिद्धसमयाणं केत्तिया लब्भंति त्ति तेरासिए कए पंचलक्ख-एगूणतीससहस्स-छस्सय-अद्वेदालीसमेत्ता सजोगिजिणा हवंति । वुत्तं च पंचेव सयसहस्सा होंति सहस्सा तहेव उणतीसा। छच्च सया अडयाला जोगिजिणाणं हवदि संखा ॥ ५४ ॥ द्वितीय गुणस्थान अर्थात् अप्रमत्तसंयत जीवोंकी संख्या दो करोड़ सत्ताईस लाख निन्यानवे हजार चारसौ अट्ठानवे है॥५३॥ अंकोंसे भी २२७९९४९८ अप्रमत्तसंयत जीव हैं। उपशामक और क्षपक जीवोंके प्रमाणका प्ररूपण पहलेके समान कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि सयोगिकेवली जीव कालकी अपेक्षा संचित हुए संख्यात होते हैं। यहां पर केवलियोंके प्रमाणकी प्ररूपणा दूसरे प्रकारसे होती है। वह इसप्रकार है- आठ समय अधिक छह महीनेका यदि आठ समयमात्र सिद्धकाल प्राप्त होता है तो चार हजार सातसौ उनतीसमात्र आठ समय अधिक छह महीनोंके कितने सिद्धकाल प्राप्त होंगे; इसप्रकार त्रैराशिक करने पर सेंतीस हजार आठसौ बत्तीसमात्र सिद्ध समय प्राप्त होते हैं। अब इस कालमें संचित हुए सयोगी जिनका प्रमाण लाते हैं। वह इसप्रकार है-आठ समयों से प्रत्येक समयमें चौदह चौदह सयोगी जिन होते हैं, ऐसा समझकर यदि आठ समयोंके एकसौ बारह सयोगी जिन प्राप्त होते हैं तो संतीस हजार आठसौ बत्तीस सिद्ध समयोंके कितने सयोगी जीव प्राप्त होंगे, इसप्रकार बैराशिक करने पर पांच लाख उनतीस हजार छहसौ अड़तालीस सयोगी जीव प्राप्त होते हैं। कहा भी है सयोगी जिन जीवोंकी संख्या पांच लाख उनतीस हजार छहसौ अड़तालीस है ॥५४॥ प्रमाणराशि फलराशि इच्छाराशि लब्ध ६ माह ८ समय । ८ समय ३७८३२ समय ८समय ११२ केवली ३७८३२ समय ५२९६४८ केवलि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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