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________________ १, २, १४. ] दन्त्रमाणानुगमे उत्तरपडिवत्तिपरूवणं [ ९९ गणपमाणेण विदेहेक्कतित्थयरगणो सरिसो होज्ज । किं तु एत्थतणमणुवेर्हितो विदेहमनुस्सा संखेज्जगुणा । तं जहा - सव्वत्थोवा अंतरदीवमणुस्सा | उत्तर कुरुदेव कुरुमणुवा संखेज्जगुणा । हरिरम्मयवासेसु मणुआ संखेज्जगुणा । हेमवद हेरण्णव दमणुआ संखेज्जगुणा । भरहेरावदमणुआ संखेज्जगुणा | विदेहे मणुआ संखेज्जगुणा' ति बहुवमणुस्सेसु जेण संजदा बहुआ चेव तेणेत्थतणसंजाणं पमाणं पहाणं काढूण जं दूसणं भणिदं तण्ण दूसणं, बुद्धिविणाइरियमुहविणिग्गय चादो एतो उत्तरपडिवतिं वत्तस्साम । एत्थ पमत्तसंजदपमाणं चत्तारि कोडीओ छासलिक्खा छासद्विसहस्सा छसद चउसहिमेत्तं भवदि । वृत्तं च चउसठ्ठी छच्च सया छासट्टिसहस्स चेव परिमाणं । छासट्ठिसय सहस्सा कोडिचउक्कं पमत्ताणं ॥ ५२ ॥ ४६६६६६६४ । वे कोडीओ सत्तावीसलक्खा णवणउदिसहस्सा चत्तारिसद अडाणउदिमेत्ता अप्पमत्तसंजदा हवंति । उत्तं च- माना जाय । किन्तु भरत और ऐरावत क्षेत्रके मनुष्योंसे विदेह क्षेत्रके मनुष्य संख्यातगुणे हैं। उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है अन्तरद्वीपों के मनुष्य सबसे थोड़े हैं । उत्तरकुरु और देवकुरुके मनुष्य उनसे संख्यातगुणे हैं। हरि और रम्यक क्षेत्रोंके मनुष्य उत्तरकुरु और देवकुरुके मनुष्योंसे संख्यातगुणे हैं । हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्रोंके मनुष्य हरि और रम्यकके मनुष्योंसे संख्यातगुणे हैं । भरत और ऐरावत क्षेत्रोंके मनुष्य हरि और रम्यकके मनुष्योंसे संख्यातगुणे हैं । विदेह क्षेत्र के मनुष्य भरत और ऐरावत के मनुष्योंसे संख्यातगुणे हैं । बहुत मनुष्यों में क्योंकि संयत बहुत ही होंगे इसलिये इस क्षेत्रसंबन्धी संयतोंके प्रमाणको प्रधान करके जो दूषण कहा वह दूषण नहीं हो सकता, क्योंकि, वह बुद्धिरहित आचार्योंके मुखसे निकला हुआ है । अब आगे उत्तर मान्यताको बतलाते है गया उत्तर मान्यता के अनुसार संयतों में प्रमत्तसंयतोंका प्रमाण केवल चार करोड़ छ्यासठ लाख छयासठ हजार छहसौ चौसठ है । कहा भी है प्रमत्तसंयतों का प्रमाण चार करोड़ छ्यासठ लाख छयासठ हजार छहसौ चौसठ ४६६६६६६४ है ॥ ५२ ॥ दो करोड़ सत्ताईस लाख निन्यानवे हजार चारसौ अट्ठानवे अप्रमत्तसंयत जीव हैं । कहा भी है १ अंतरदीव मणुस्सा थोवा ते कुरुसु दससु संखेज्जा । तचो संखेज्जगुणा हवंति हरिरम्मगेसु सेसु । वरिसे संखेज्जगुणा हेरण्णवदम्मि हेमवदवरिले । भरहेरावदवंसे संखेज्जगुणा विदेहे य ॥ ति. प. पत्र १६०. २ प्रतिषु ' छावत रिसहस्स ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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