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________________ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, २, ९५. .. असंखेजाणि ति णिदेसो जगपदरादिहेडिमअसंखेज्जासंखेज्जपडिसेहफलो । घणलोगादिउवरिमसंखेज्जासंखेज्जपडिसेहटुं लोगस्स संखेजदिभागवयणं । खेत्तेण इदि वयणे तइया दहव्वा । सेसं सुगमं । संखेज्जरूवेहि घणलोगे भागे हिदे बादरवाउपज्जत्तदव्वमागच्छदि त्ति वुत्तं होदि । एत्थ गाहा ( जगसेढीए वग्गो जगसेढीसंखभागगुणिदो दु । "तम्हा घणलोगंतो बादरपज्जत्तवाऊणं ॥ ७८ ॥ वणफइकाइया णिगोदजीवा बादरा सुहुमा पज्जत्तापज्जत्ता दव्वपमाणेण केवाडया, अणंता ॥ ९५॥ .. वनस्पतिः कायः शरीरं येषां ते वनस्पतिकायाः, वनस्पतिकाया एव वनस्पति जो असंख्यात जगप्रतरप्रमाण लोकके संख्यातवें भाग है ॥ ९४ ॥ सूत्रमें 'असंख्यात' यह वचन जगप्रतर आदि अधस्तन असंख्यातासंख्यातके प्रतिषेधके लिये दिया है। घनलोक आदि उपरिम असंख्यातासंख्यातके प्रतिषेध करनेके लिये 'लोकके संख्यातवें भागप्रमाण' यह बचन दिया है। 'खेत्तेण' इस पदमें तृतीया विभक्ति जानना चाहिये। शेष कथन सुगम है। संख्यातसे घनलोकके भाजित करने पर बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंका द्रव्य आता है, यह इस कथनका तात्पर्य है। यहां गाथा दी जाती है चूंकि जगश्रेणीके वर्गको जगश्रेणीके संख्यातवें भागसे गुणित करने पर बादर वायुकायिक पर्याप्त राशि आती है । इसलिये उक्त प्रमाण घनलोकके भीतर आता है ॥ ७८॥ वनस्पतिकायिक जीव, निगोद जीव, वनस्पतिकायिक बादर जीव, वनस्पतिकायिक सूक्ष्म जीव, वनस्पतिकायिक बादर पर्याप्त जीव, वनस्पतिकायिक बादर अपर्याप्त जीब, वनस्पतिकायिक सूक्ष्म पर्याप्त जीव, वनस्पतिकायिक सूक्ष्म अपर्याप्त जीव, निगोद बादर जीव, निगोद सूक्ष्म जीव, निगोद बादर पर्याप्त जीव, निगोद बादर अपर्याप्त जीव, निगोद सूक्ष्म पर्याप्त जीव और निगोद सूक्ष्म अपर्याप्त जीव, प्रत्येक द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? अनन्त हैं ॥ ९५ ॥ वनस्पति ही काय अर्थात् शरीर जिन जीवोंके होता है वे वनस्पतिकाय कहलाते हैं। १ तसरासिपुढविआदिचउक्कपत्तेयहीणसंसारी । साहारणजीवाणं परिमाणं होदि जिणदिह ॥ सगसगअसंखमागो बादरकायाण होदि परिमाणं । सेसा सहुमपमाणं पडिभागो पुरणिहिट्ठो। सहमेसु संखभाग संखामांगा अपण्णगा इदरा। जस्सि अपुण्णद्धादो पुणद्धा संखगुणिदकमा ॥ गो जी. २०६-२०८. साहारणबादरे असंख भाग असंखगा मागा। पुण्णाणमपुण्णाणं परिमाणं होदि अणुकमसो॥ गो. जी. २११. साहारणाण भेया चउरो अणंता । पञ्चसं. २,९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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