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________________ १, २, ९५.] दव्वपमाणाणुगमे पुढविकाइयादिपमाणपरूवणं [३५७ कायिकाः । एवं सदि विग्गहगईए वट्टमाणाणं वण फइकाइयत्तं ण पावेदि ? चे, ण एस दोसो, वणप्फइकाइयसंबंधेण सुह-दुक्खाणुहवणणिमित्तकम्मेणेयत्तमुवगयजीवाणमुवयारेण वणप्फइकाइयत्ताविरोहा । वणप्फइणामकम्मोदया जीवा विग्गहगईए वट्टमाणा वि वणप्फइकाइया भवंति । जेसिमणंताणंतजीवाणमेक्कं चैव सरीरं भवदि साधारणरूवेण ते णिगोदजीवा भणंति । संखेज्जासंखेज्जपडिसेहफलो अणंतणिदेसो । सेसं सुगमं । अणंता इदि सामण्णवयणेण णवविहस्स अणंतस्स गहणे पत्ते अविवक्खिदस्स अट्टविहाणंतस्स पडिसेहट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि तथा वनस्पतिकाय ही वनस्पतिकायिक कहलाते हैं। शंका-यदि ऐसा है तो विग्रहगतिमें विद्यमान जीवोंको वनस्पतिकायिकपना नहीं प्राप्त होता है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, वनस्पतिकायके संबन्धले सुख और दुःखके अनुभव करने में निमित्तभूत कर्मके साथ एकत्वको प्राप्त हुए जीवोंके उपचारसे विग्रहगतिमें वनस्पतिकायिक कहने में कोई विरोध नहीं आता है। जिन जीवोंके वनस्पति नामकर्म का उदय पाया जाता है वे विग्रहगतिमें रहते हुए भी वनस्पतिकायिक कहे जाते हैं। विशेषार्थ-यहां पर शंकाकारका यह अभिप्राय है कि जो जीव विग्रहगतिमें रहते हैं उनके एक, दो या तीन समयतक नोकर्म वर्गणाओंका ग्रहण नहीं होता है, इसलिये उन्हें उस समय वनस्पतिकायिक आदि नहीं कह सकते हैं । इस शंकाका समाधान यह है कि विग्रहगतिके प्रथम समयसे ही जीवोंके स्थावरकाय या त्रसकाय नामकर्मका उदय हो जाता है। स्थावरकायके पृथिवीकायिक आदि पांच अवान्तर भेद हैं और सामान्य अपने विशेषोंको छोड़कर स्वतंत्र नहीं पाया जाता है, इसलिये पृथिवी जीवके पृथिवीकाय, वनस्पति जीवके वनस्पतिकाय नामकर्मका उदय विग्रहगतिके प्रथम समयसे ही हो जाता है, यह सिद्ध हुआ। अब यदि एक, दो या तीन समयतक उसके नोकर्म वर्गणाओंका ग्रहण नहीं भी होता है, तो भी वह जीव उस उस पर्यायमें सुख और दुःखके अनुभव करनेमें निमित्तभूत कर्मों के साथ एकत्वको प्राप्त हो चुका है, इसलिये उसे उपचारसे वनस्पतिकायिक आदि कहना विरोधको प्राप्त नहीं होता है। जिन अनन्तानन्त जीवोंका साधारणरूपसे एक ही शरीर होता है उन्हें निगोद जीव कहते हैं। सूत्रमें संख्यात और असंख्यातका प्रतिषेध करने के लिये 'अनन्त' पदका निर्देश किया हैं । शेष कथन सुगम है। सूत्र में 'अनन्त है ' ऐसा सामान्य वचन देनेसे नौ प्रकारके अनन्तोंके ग्रहणके प्राप्त होने पर अविवक्षित आठ प्रकारके अनम्तों के प्रतिषेध करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं- . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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