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________________ १, २, ९४.] दव्वपमाणाणुगमे पुढविकाइयादिपमाणपरूवणं भाएण बादरतेउपज्जत्तरासिणा गहिदगहिदो गहिदगुणगारो च वत्तव्यो। एत्थ सुत्तगाहा (आवलियाए वग्गो आवलियासंखभागगुणिदो दु । ताहा घणस्स अंतो बादरपज्जत्ततेऊणं ।। ७७ ॥) बादरवाउकाइयपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा॥९२॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थो सुगमो । असंखेजा इदि सामण्णवयणेण णवविहासंखेजस्स गहणे पत्ते अणिच्छिदासंखेज्जपडिसेहट्टमुत्तरसुत्तमाह असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि--उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण ॥ ९३॥ एदस्स वि सुत्तस्स अत्यो णिक्खेवादीहि पुवं व परूवेदब्यो । एदम्हादो सुत्तादो सेसअट्टविहअसंखेज्जस्स पडिसेहे जादे वि अजहण्णाणुक्कस्सअसंखेज्जासंखेज्जओसप्पिणिउस्सप्पिणीओ घणलोगादिभेएण अणेयवियप्पाओ तदो तप्पडिसेहट्टमुत्तरसुत्तं भणदि खेत्तेण असंखेज्जाणि जगपदराणि लोगस्स संखेजदिभागों ॥१४॥ असंख्यातवें भागरूप और घनाघनावलीके उपरिम वर्गके असंख्यातवें भागरूप बादर तेज स्कायिक पर्याप्त राशिके द्वारा गृहीतगृहीत और गृहीतगुणकारका कथन करना चाहिये। यहां सूत्रगाथा दी जाती है चूंकि आवलीके असंण्यातवें भागसे आवलीके वर्गको गुणित कर देने पर बादर तेजस्कायिक पर्याप्त राशिका प्रमाण होता है, इसलिये वह प्रमाण घमावलीके भीतर है ॥ ७७ ॥ बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ॥९२ ॥ इस सूत्रका अर्थ सुगम है। सूत्र में ' असंख्यात हैं' ऐसा सामान्य वचन देनेसे नौ प्रकारके असंख्यातोंका ग्रहण प्राप्त होने पर अनिच्छित असंख्यातोंका प्रतिषेध करनेके लिये मागेका सूत्र कहते हैं ___कालकी अपेक्षा बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव असंख्यातासंख्यात अवससर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के द्वारा अपहृत होते हैं ॥ ९३ ॥ निक्षेप आदिके द्वारा इस सूत्रके भी अर्थका पहलेके समान प्ररूपण करना चाहिये। इस सूत्रसे शेष आठ प्रकारके असंख्यातोंके प्रतिषेध हो जाने पर भी अजघन्यानुत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियां और उत्सर्पिणियां घनलोक आदिके भेदसे अनेक प्रकारकी हैं, इसलिये उनका प्रतिषेध करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं क्षेत्रकी अपेक्षा बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव असंख्यात जगप्रतरप्रमाण हैं, १४ लोगाणं x संखं xx वाऊणं। पज्जताण पमाणं | गो.जी. २१० वाऊ य लोगसंखं । पश्चसं.२,११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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