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________________ १, २, १२२. ] दव्यमाणाणुगमे जोगमग्गणापमाणपरूवणं [ ४०३ दो सब्जीवरासी गंगापवाहो व्व निरंतरं विग्गहं काऊणुप्पज्जदि, तेण कम्मइयरासिस्स मूलोघपरूवणा ण विरुद्धा । एदस्स सुत्तस्स धुवरासी बुच्चदे । कायजोगिधुवरासिमंतोमुहुत्तेण गुणिदे कम्मइयजोगिधुवरासी होदि । तं जहा - संखेज्जावलियमेत्तअंतोमुहुत्तकाले जदि सव्वजीवरासिस्स संचओ होदि, तो तिण्हं समयाणं केत्तियं संचयं लामो ति पमाणेण इच्छागुणिदफलमोवट्टिय अंतोमुहुत्तोवट्टियसव्वजीवरासी आगच्छदि । सासणसम्माहट्टी असंजदसम्माहट्टी दव्वपमाणेण केवडिया, ओघं ॥ १२२ ॥ जेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता तिरिक्खअसंजदसम्माइट्टिणो विग्गहं काऊण देवेसुप्पज्जमाणा लब्भंति, देव-तिरिक्खसासणसम्माइट्टिणो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता तिरिक्ख- देवेसु विग्गहं करिय उववज्जमाणा लब्भंति, तेण एदेसिं पमाणपरूवणा ओघपरूवणाए तुल्ला । एदेसिमवहारकालुप्पत्ती बुच्चदे । असजद सम्मादिट्ठि - सासणसम्मादिट्टिवेउब्वियमिस्सअवहारकाले आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे कम्मइयकायजोगिअ संजदसम्मादिट्ठि - सासणसम्मादिट्ठिअवहारकाला भवंति । कुदो ? विग्गहं करिय चूंकि सर्व जीवराशि गंगानदी के प्रवाहके समान निरंतर विग्रह करके उत्पन्न होती है, इसलिये कार्मणकाय राशि की प्ररूपणा मूलोध प्ररूपणा के समान होती है, विरुद्ध नहीं । अब इस सूत्र में कहे गये कार्मणकाययोगियोंके प्रमाणकी ध्रुवराशि कहते हैंकाययोगियोंकी ध्रुवराशिको अन्तर्मुहूर्तसे गुणित करने पर कार्मणकाययोगियों की ध्रुवराशि होती है । उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है- संख्यात आवलीमात्र अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा यदि सर्व जीवराशिका संचय होता है, तो तीन समय में कितना संचय प्राप्त होगा, इसप्रकार इच्छाराशिसे फलराशिको गुणित करके जो लब्ध आवे उसे प्रमाणराशिसे भाजित करने पर अन्तर्मुहूर्त काल से भाजित सर्व जीवराशि आती है । सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि कार्मणकाययोगी जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? सामान्य प्ररूपणा के समान पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं ॥ १२२ ॥ चूंकि पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण तिर्यच असंयतसम्यग्दृष्टि जीव विग्रह करके देवोंमें उत्पन्न होते हुए पाये जाते हैं । तथा पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण देव सासादनसम्यग्दृष्टि जीव, और उतने ही तिर्येच सासादनसम्यग्दृष्टि जीव क्रमले तिर्यच और देवोंमें विग्रह करके उत्पन्न होते हुए पाये जाते हैं, इसलिये सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि कार्मणकाययोगियोंकी प्ररूपणा सामान्य प्ररूपणा के तुल्य है । अब इनके अवहारकालकी उत्पत्तिको कहते हैं— असंयतसम्यग्दृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि वैक्रियिकमिश्र अवहारकालको भावलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर क्रमसे कार्मणकाययोगी भसंयतसम्यग्दृष्टि और सासासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके अवहारकाल होते हैं, क्योंकि, विग्रह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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