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लक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, १२०.
आहारसरीरमण्णगुणट्ठाणेसु णत्थि चि जाणावणङ्कं पमत्तगणं कदं । सेसं सुद्रु
सुमं ।
(आहारमिस्स कायजोगीसु पमत्तसंजदा दव्वपमाणेण केवडिया, संखेज्जा ॥ १२० ॥
( एत्थ आइरियपरंपरागदोवएसेण आहारमिस्सकायजोगे सत्तावीस २७ जीवा हवंति । ) अहवा आहारमिस्सकायजोगे जिणदिट्ठभावा संखेज्जजीवा हवंति, ण सत्तावीस, सुत्ते संखेज्जणिद्देसण्ण हाणुववत्तीदो मिस्सकायजोगेहिंतो आहारकायजोगीणं संखेज्जगुणत्तादो च । णच दोहमेत्थ गहणं, अजहण्णअणुक्कस्ससंखेज्जस्स सव्वगहणादो, सव्वअपज्जतद्धाहिंतो पज्जत्तद्धाणं जहण्णाणं पि संखेज्जगुणत्तदंसणादो ।
कम्मइयकायजोगीसु मिच्छा हट्टी दव्वपमाणेण केवडिया, मूलोघं
॥ १२१ ॥
चौवन हैं ॥ ११९ ॥
प्रमत्तसंयत गुणस्थानको छोड़कर दूसरे गुणस्थानों में आहारशरीर नहीं पाया जाता है, इसका ज्ञान कराने के लिये प्रमत्तसंयत पदका ग्रहण किया। शेष कथन सुगम है. आहार मिश्रका ययोगियों में प्रमत्तसंयत जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ॥ १२० ॥
यहां पर आचार्य परंपरासे आये हुए उपदेशानुसार आहारमिश्रकाययोगमें सत्तावीस जीव होते हैं । अथवा, आहारमिश्रकाययोगमें जिनदेवने जितनी संख्या देखी हो उतने संख्यात जीव होते हैं, सत्तावीस नहीं, क्योंकि, सूत्रमें संख्यात, यह निर्देश अन्यथा बन नहीं सकता है । तथा मिश्रयोगियोंसे आहारकाययोगी जीव संख्यातगुणे हैं, इससे भी प्रतीत होता है कि आहारमिश्रकाययोगी जीव संख्यात हैं, सत्तावीस नहीं । कदाचित् कहा जाय कि दो भी तो संख्यात हैं । परंतु दो यह संख्या संख्यात होते हुए भी उसका यहां पर ग्रहण नहीं किया है, क्योंकि, सबके द्वारा अजघन्यानुत्कृष्टरूप संख्यातका ही ग्रहण किया है । अथवा, सर्व अपर्याप्तकालसे जघन्य पर्याप्त काल भी संख्यातगुणा है, इससे भी यही प्रतीत होता है कि आहारमिश्रकाययोगी सत्तावीस नहीं लेना चाहिये ।
कार्मणकाययोगियों में मिध्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? ओघप्ररूपणा के समान हैं ॥ १२१ ॥
१ आहार मिस्साजोगा सत्तावीसा दु उक्कस्सं ॥ गो. जी. २७०
२ गो. जी. २६४-२६५.
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