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________________ शंका-समाधान " ' पाठ है, जिसका अनुवाद में 'महु २ शंका - - गाथा ४ 'मुझपर ' किया गया है । समझमें नहीं आता कि यह अनुवाद कैसे ठीक हो सकता है, जब कि 'महु' का संस्कृत रूपान्तर 'मधु' होता है ! ( विवेकाभ्युदय, ता० २० - १०-४० ) समाधान - प्रकृत में ' महु' का संस्कृत रूपान्तर ' मह्यम् ' करना चाहिए | देखो हैम व्याकरण 'महु मज्झु ङसि ङभ्याम् ८, ४, ३७९. इसीके अनुसार मुझपर ऐसा अर्थ 6 किया गया है । I ३ शंका - गाथा ४ में ' दाणवरसीहो ' पाठ है । पर उसमें नाश करनेका सूचक 'हर ' शब्द नहीं है । ' वर ' की जगह ' हर ' रखना चाहिए था । (विवेकाभ्युदय, ता०२०-१०-४०) समाधान - हमारे सन्मुख उपस्थित समस्त प्रतियोंमें ' दाणवरसीहो ' ही पाठ था और मूडबिद्री से उसमें कोई पाठ - परिवर्तन नहीं मिला। तब उसमें 'वर' के स्थानपर जबरदस्ती 'हर ' क्यों कर दिया जाय, जब कि उसका अर्थ ' हर ' के बिना भी सुगम है ? ' वादीभसिंह ' आदि नामोंमें विनाशबोधक कोई शब्द न होते हुए भी अर्थमें कोई कठिनाई नहीं आती । , पृष्ठ ७ ४ शंका - गाथा ५ में ' दुकयंतं ' पाठ है जिसका अर्थ किया गया है ' दुष्कृत अर्थात् पापों का अन्त करनेवाले ' यह अर्थ किसप्रकार निकाला गया, उक्त शब्दका संस्कृत रूपान्तर क्या है, यह स्पष्ट करना चाहिए । (विवेकाम्युदय, २०-१०-४० ) का संस्कृत रूपान्तर है ' दुष्कृतान्त ' जिसका अर्थ दुष्कृत सुस्पष्ट है । समाधान -- ' दुकयंतं अर्थात् पापोंका अन्त करनेवाले ५ शंका - गाथा ५ में ' - वई सया देतं ' पाठ है, जिसका रूपान्तर होगा ' - पति सदा दन्तं ' । इसमें हमें समझ नहीं पड़ता कि ' दन्त' शब्दसे इंद्रियदमनका अर्थ किसप्रकार लाया जा सकता है ? ( विवेकाभ्युदय, २०- १०-४० ) समाधान - प्राकृत में ' दंतं ' शब्द ' दान्त' के लिये भी आता है । यथा, दंतेन चितेण चरंति धीरा ' ( प्राकृतसूक्तरत्नमाला ) पाइअसद्दमहण्णओ कोषमें ' दंत' का अर्थ ' जितेन्द्रिय ' दिया गया है । इसीके अनुसार ' निरन्तर पंचेन्द्रियों का दमन करनेवाले ' ऐसा अनुवाद किया गया है । 1 ६ शंका- गाथा ६ में ' विणिहयवम्महपसरं ' का अर्थ होना चाहिये ' जिन्होंने ब्रह्माद्वैतकी व्यापकताको नष्ट कर दिया है और निर्मलज्ञान के रूपमें ब्रह्मकी व्यापकताको बढ़ाया है ' । ( विवेकाभ्युदय, २०-१०-४० > " समाधान - जब काव्य में एकही शब्द दो वार प्रयुक्त किया जाता है तब प्रायः दोनों जगह उसका अर्थ भिन्न भिन्न होता है । किन्तु उक्त अर्थमें ' वम्मह' का अर्थ दोनों जगह 'ब्रह्म' ले लिया गया है, और उनमें भेद करनेके लिए एकमें 'अद्वैत' शब्द अपनी ओरसे डाला गया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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