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शंका-समाधान 'उकस्सेण छावट्टि सागरोवमाणि सादिरयाणि ॥ तं जहा-एको अट्ठावीससंतकम्मिओं पुश्वकोडाउअमणुसेसु उववण्णो अवस्सिओ वेदगसम्मत्तमप्पमत्तगुणं च जुगवं पडिवण्णो १ तदो पमत्तापमसपरावत्तसहस्सं कादूण २ उवसमसेढीपाओग्गविसोहीए विसद्धो ३ अपुब्बो ४ अणियट्टी ५ सुहुमो ६ उवसती ७ पुणो वि सुहमो ८ अणियट्टी ९ अपुग्यो १० होदूण हेट्रा पडिय अंतरिदो देसूणपुवकोडिं संजममणुपालेदूण मदो तेत्तीससागरोवमाउट्ठिदीएसु देवेसु उववण्णो । तत्तो चुदो पुवकोडाउएसु मणुसेसु उववण्णो । खइयं पिट्ठविय संजमं कादूण कालं गदो । तेत्तीससागरोवमाउट्रिदीएसु देवसु उववण्णो । ततो चुदो पुन्वकोडाउएसु मणुसेसु उववण्णो - संजमं पडिवण्णो । अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे अपुवो जादो लद्धमंतरं ११ अणियही १२ सुहमो १३ उवसंतो १४ भूओ सुहमो १५ अणियही १६ अपुब्बो १७ अप्पमत्तो १८ पमत्ती जादो १९ अप्पमत्तो २० उवरि छ अंतोमुहुत्ता अट्ठहि वस्सेहि छन्त्रीसंतोमुहुत्तेहि य ऊणा पुब्वकोडीहि सादिरेयाणि छावट्रिसागरोवमाणि उक्कस्संतरं होदि'
___ यह विवरण उपशामक जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तरकाल बताते हुए अन्तरप्ररूपणामें आया है । अर्थात् कोई एक जीव उपशमश्रेणीसे उतरकर साधिक छयासठ सागरके बाद भी पुनः उपशमश्रेणीपर चढ़ सकता है । उक्त गद्यका भाव यह है:--
'मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाला कोई एक जीव पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ और आठ वर्षका होकर वेदकसम्यक्त्व और अप्रमत्त गुणस्थानको युगपत् प्राप्त हुआ। पश्चात् प्रमत्त अप्रमत्त गुणस्थानोंमें कईवार आ जा कर उपशमश्रेणीपर चढ़ा और उतरकर आठ वर्ष और दश अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटी वर्षतक संयमको पालके मरणकर तेतीस सागरकी आयुवाला देव हुआ। वहांसे च्युत होकर पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। यहांपर क्षायिकसम्यक्त्वको भी धारण कर तथा संयमी होकर मरा और पुनः तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले देवोंमें उत्पन्न हुआ । वहांसे च्युत हो पुनः पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ और यथासमय संयमको धारण किया । जब उसके संसारमें रहनेका काळ अन्तर्मुहूर्त प्रमाण रह गया, तब पहले उपशमश्रेणीपर चढा, पीछे क्षपकश्रेणीपर चढ़कर निर्वाणको प्राप्त हुआ। इसप्रकारसे उपशमश्रणीवाले जीवका उत्कृष्ट अन्तर आठ वर्ष और छव्वीस अन्तर्मुहासे कम तीन पूर्वकोटियोंसे अधिक छयासठ सागरोपमकाल प्रमाण होता है।
___ इस अन्तरकाल में रहते हुए भी वह बराबर सम्यग्दर्शनसे युक्त बना हुआ ह, भले ही प्रारंभमें ३३ सागर तक क्षायोपशमिकसम्यक्त्वी और बाद में क्षायिकसम्यक्त्वा रहा हो। इस प्रकार सम्यग्दर्शनसामान्यकी दृष्टिसे साधिक ध्यासठ सागरकी स्थितिका कथन युक्तिसंगत ही है और उसमें उक्त दोनों मतोंसे कोई विरोध भी नहीं आता है।
खुद्दाबंधके कालानुयोगद्वारमें भी सम्यक्त्वमार्गणाके अन्तर्गत सम्यक्त्वसामान्यकी उत्कृष्ट स्थिति ६६ सागरसे कुछ अधिक दी है । यथा--
सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण छावट्ठिसागरोवमाणि सादिस्याणि ।
(धवला. अप, ५०७)
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