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उत्तरप्रतिपत्ति और दक्षिणप्रतिपत्ति
४ उत्तरप्रतिपत्ति और दक्षिणप्रतिपत्ति पर कुछ और प्रकाश
प्रथम भागकी प्रस्तावना में' हम वर्तमान ग्रंथभाग अर्थात् द्रव्यप्रमाणप्ररूपणा में के तथा अन्यत्र से तीन चार ऐसे अवतरणों का परिचय करा चुके हैं जिनमें ' उत्तरप्रतिपत्ति' और 'दक्षिणप्रतिपत्ति' इसप्रकार की दो भिन्न भिन्न मान्यताओंका उल्लेख पाया जाता है । वहां हम कह आये हैं कि 'हमने इन उल्लेखोंका दूसरे उल्लेखों की अपेक्षा कुछ विस्तारसे परिचय इस कारणसे दिया है क्योंकि यह उत्तर और दक्षिण प्रतिपत्तिका मतभेद अत्यन्त महत्वपूर्ण और विचारणीय है । संभव है इनसे धवलाकारका तात्पर्य जैनसमाजके भीतरकी किन्हीं विशेष सांप्रदायिक मान्यताओंसे ही हो यहां हमारा संकेत यह था कि संभवतः यह श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्यता भेद हो और यह बात उक्त प्रस्तावना के अन्तर्गत अंग्रेजी वक्तव्यमें मैंने व्यक्त भी कर दी थी कि --
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"At present I am examining these views a bit more closely. They may ultimately turn out to be the Svetambara and Digambara Schools ". उक्त अवतरणों में दक्षिणप्रतिपत्तिको ' पवाइज्जमाण ' और ' आयरियपरंपरागय' भी कहा । अब श्रीजयधवलमें एक उल्लेख हमें ऐसा भी दृष्टिगोचर हुआ है जहां 'पवाइज्जंत ' तथा आइरियपरंपरागय' का स्पष्टार्थ खोलकर समझाया गया है और अज्जमंखुके उपदेशको वहां अपवाइज्नमाण ' तथा नागहस्ति क्षमाश्रमणके उपदेशको ' पत्राइजंत ' बतलाया है । यथा-
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को पुण पवाइजतोत्र एसो णाम वुत्तमेदं ? सव्वाइरियसम्मदो चिरकालमन्त्रोच्छिष्णसंपदायकमेणागच्छमाणो जो सिस्लपरंपराए पवाइज्जदे पण्णविज्जदे सो पवाइज्जतोवएसो ति भण्णदे | अथवा अज्जमंखुभयताणमुवएस एस्थापवाइज्जमाणो णाम । नागहत्थिखवणाणमुवएसो पवाइज्जंतो त्ति घेत्तव्वो ।
( जयधवला अ. पत्र ९०८ )
अर्थात् यहां जो ' पवाइज्जत' उपदेश कहा गया है उसका अर्थ क्या है ? जो सर्व आचार्योंको सम्मत हो, चिरकालसे अव्युच्छिन्नसंप्रदाय - क्रमसे आ रहा हो और शिष्यपरंपरा से प्रचलित और प्रज्ञापित किया जा रहा हो वह ' पवाइज्जंत ' उपदेश कहा जाता है । अथवा, भगवान् अज्जमंखुका उपदेश यहां ( प्रकृत विषयपर ) अपवाइज्जमाण' है, तथा नागहस्तिक्षपणका उपदेश ' पवाइज्जंत' है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये ।
अज्जमंखु और नागहस्तिके भिन्न मतोपदेशोंके अनेक उल्लेख इन सिद्धान्त ग्रन्थोंमें पाये जाते हैं, जिनकी कुछ सूचना हम उक्त प्रस्तावना में दे चुके हैं । जान पड़ता है कि इन दोनों आचार्योंका जैनसिद्धान्तकी अनेक सूक्ष्म बातोंपर मतभेद था । जहां वीरसेनस्वामी के संमुख ऐसे मतभेद उपस्थित हुए, वहां जो मत उन्हें प्राचीन परंपरागत ज्ञात हुआ, उसे 'पवाइज्जमाण' कहा ।
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१ षट्खंडागम भाग, १ भूमिका पृष्ठ ५७.
२ देखो पृ. ९२, ९४, ९८ आदि, मूल व अनुवाद.
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