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षटखंडागमकी प्रस्तावना (२९६ में कहा है-पुंसंदूणिस्थिजुदा जोणिणीये' अर्थात् योनिमतीके पूर्वोक्त ९७ प्रकृतियोंमेंसे पुरुषवेद
और नपुंसक वेदको घटाकर स्त्री वेदके मिला देनेपर ९६ प्रकृतियोंका उदय होता है। मनुष्यनियोंके विषयमें कहा है-'मणुसिणिए स्थीसहिदा' ॥३०१॥ अर्थात् पूर्वोक्त १०० प्रकृतियोंमें स्त्रीवेदके मिला देनेपर और तीर्थकर आदि ५ प्रकृतियां निकाल देनेपर मनुष्यनियोंके ९६ प्रकृतियोंका उदय होता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यहां योनिमती उसे कहा है जिसके स्त्रीवेदका उदय हो । ऐसे जीवके द्रव्य वेद कोई भी रहेगा तो भी वह योनिमती कहा जायगा। अब रही योनिमतीके १४ गुणस्थान की बात, सो कर्मभूमिज स्त्रियों के अन्तके तीन संहननोंका ही उदय होता है, ऐसा गो० कर्मकांड की गाथा ३२ से प्रगट है। परन्तु शुक्लध्यान, क्षपक श्रेण्यारोहणादि कार्य प्रथम संहननवालके ही होते हैं । इससे यह तो स्पष्ट है कि द्रव्यस्त्रियोंके १४ गुणस्थान नहीं होते हैं। पर गोम्मटसारमें स्त्रीवेदीके १४ गुणस्थान बतलाये अवश्य हैं, इसलिए वहां द्रव्यसे पुरुष और भावप्ले स्त्रीवेदीका ही योनिमती पदसे ग्रहण करना चाहिए। इस विषयमें गोम्मटसार और धवलसिद्धान्तमें कोई मतभेद नहीं है । द्रव्यस्त्रोके आदिके पांच गुणस्थान ही होते हैं । गोम्मटसारकी गाथा नं. १५० में भाववेदकी मुख्यतासे ही योनिमतीका ग्रहण है। गाथा नं. १५६ और १५९ में टीकाकारने योनिमतीसे द्रव्यस्त्रीका ग्रहण किया है, किन्तु वहां भी परिणतिमें स्त्रीभाव हो, ऐसा नहीं कहा गया है।
टिप्पणियोंके विषयमें २३ शंका-~-धवलाके फुटनोटोंमें दिये गये भगवती आराधनाकी गाथाओंको मूलाराधनाके नामसे उल्लेखित किया गया है, यह ठीक नहीं। जबकि ग्रन्थकार शिवार्य स्वयं उसे भगवती आराधना लिखते हैं, तब मूलाराधना नाम उचित प्रतीत नहीं होता । मूलाराधनादर्पण तो पं. आशाधरजीकी टीका का नाम है, जिसे उन्होंने अन्य टीकाओंसे व्यावृत्ति करनेके लिए दिया था। यदि आपने किसी प्राचीन प्रतिमें ग्रन्थका नाम मूलाराधना देखा हो तो कृपया लिखनेका अनुग्रह कीजिए ।
(पं० परमानन्दजी शास्त्री, पत्र २९-१०-३९) समाधान-टिप्पणियोंके साथ जो ग्रंथ-नाम दिये गये हैं वे उन टिप्पणियोंके आधारभूत प्रकाशित ग्रंथोंके नाम हैं। शोलापुरसे जो ग्रन्थ छपा है, उसपर ग्रन्थका नाम ' मूलाराधना.' दिया गया है । वही प्रति हमारी टिप्पणियोंका आधार रही है । अतएव उसीका नामोल्लेख कर दिया गया है । ग्रन्थके नामादि सम्बन्धी इतिहासमें जानेके लिए वह उपयुक्त स्थल नहीं था ।
२४ शंका-टिप्पणियोंमें अधिकांश तुलना श्वेताम्बर ग्रन्थोंपरसे की गई है। अच्छा होता यदि इस कार्यमें दिगम्बर ग्रन्थोंका और भी अधिकता के साथ उपयोग किया जाता। इससे तुलना-कार्य और भी अधिक प्रशस्तरूपसे सम्पन्न होता ।
(अनेकान्त, १, २ पृ. २०१) (जैनसंदेश, १५ फरवरी १९४०) (जैनगजट, ३ जुलाई १९४०)
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