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________________ २६०] छक्खंडागमे जीवठाणं [ १, २, ४७. एदम्हि सुत्तम्हि मणुसोघे जं चउण्हं गुगट्ठाणाणं पमाणं वुत्तं तं चेव पमाणं वत्तव्वं, संगहिदतिवेदत्तणेण पज्जत्तभावेण च दोहं विसेसाभावादो । पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अजोगकेवलि त्ति ओघं ॥ ४७ ॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थो पुव्वं परूविदो त्ति ण वुच्चदे । मणुसिणीसु मिच्छाइट्टी दव्वपमाणेण केवडिया ? कोडाकोडाकोडीए उवरि कोडाकोडाकोडाकोडीए हेढदो छण्हं वग्गाणमुवरि सत्तण्हं वग्गाणं हेट्टदो ॥४८॥ एदस्स सुत्तस्स वक्खाणं मणुसपज्जत्तसुत्तवक्खाणेण तुलं । णवरि पंचमवग्गस्स तिभागे पंचमवग्गम्हि चेव पक्खित्ते मणुसिणीणमवहारकालो होदि । तेण सत्तमवग्गे भागे हिदे मणुसणीणं दधमागच्छदि । लद्धादो सगतेरसगुणट्ठाणपमाणे अवणिदे मणुसिणीमिच्छाइदिव्वं होदि । सामान्य मनुष्य राशिका प्रमाण कहते समय सासादनादि चार गुणस्थानवर्ती राशिका जो प्रमाण कह आये हैं, इस सूत्रका व्याख्यान करते समय उसी प्रमाणका व्याख्यान करना चाहिये, क्योंकि, संगृहीत त्रिवेदत्यकी अपेक्षा और पर्याप्तपनेकी अपेक्षा उक्त दोनों राशियों में कोई विशेषता नहीं है। प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें पर्याप्त मनुष्य सामान्य प्ररूपणाके समान संख्यात हैं ॥ ४७ ।। इस सूत्रका अर्थ पहले कह आये हैं, इसलिये यहां नहीं कहा जाता है । मनुष्यनियोंमें मिथ्याहृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? कोड़ाकोड़ाकोड़ीके ऊपर और कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ीके नीचे छठवें वर्गके ऊपर और सातवें वर्गके नीचे मध्यकी संख्याप्रमाण हैं ॥ ४८ ॥ इस सूत्रका व्याख्यान मनुष्य पर्याप्तकी संख्याके प्रतिपादन करनेवाले सूत्रके व्याख्यानके तुल्य है । इतनी विशेषता है कि पांचवें वर्गके त्रिभागको पांचवें वर्गमें प्रक्षिप्त कर देने पर मनुष्यनियोंके प्रमाण लानेके लिये अवहारकाल होता है। उस अवहारकालसे सातवें वर्गके भाजित करने पर मनुष्यनियोंके द्रव्यका प्रमाण आता है। इसप्रकार जो मनुष्यनियोंकी संख्या लब्ध आवे उसमेंसे अपने तेरह गुणस्थानके प्रमाणके घटा देने पर मनुष्यनी मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण होता है। १दो पण सग दुग छण्णव सग पण इगि पंच णवा एधे । तिय पण दुग अड छपण अह एक दुगमेकं । इगि दुग चउ णव पंच य मणुसिणिरासिस्स परिमाणं । ५९४२११२१८८५६९८२५३१९५१५७९९२७५२ ति. पं. १६० पत्र. पज्जचमणुस्साणं तिच उत्थो माणुसीण परिमाणं ॥ गो. जी. १५९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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