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________________ १, २, ४६.] दव्वपमाणाणुगमे मशुसमदिपमाणपरूवणं [ २५९ ___ सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव संजदासजदा ति दव्वपमाणेण केवडिया, संखेज्जा ॥ ४६॥ क्षेत्रफल घटा देने पर शेष क्षेत्रफल ६१९७०८४६६६८१६४१६२०००००००० प्रतरांगुलप्रमाण रहता है, क्योंकि, दोनों समुद्रोंमें अन्तीपज मनुष्य होते हुए भी उनका प्रमाण अत्यल्प होनेसे उनके क्षेत्रफलकी यहां विवक्षा नहीं की गई है। एक मनुष्यका निवास क्षेत्र संख्यात प्रतरांगुलप्रमाण है, इसलिये ऊपर जो प्रतरांगुलोंकी संख्या बतलाई है मनुष्यराशि उससे कम ही होना चाहिये । पर मनुष्यराशिको २९ अंकप्रमाण मान लेने पर २५ अंकप्रमाण क्षेत्रफलवाले क्षेत्रमें उनका रहना किसी प्रकार भी संभव नहीं है। कारण कि ढाई द्वीपका क्षेत्रफल २५ अंकप्रमाण ही है । कदाचित् यह कहा जाय कि ऊपर जो २५ अंक प्रतरांगुल. प्रमाण क्षेत्रफल कहा है वह प्रमाणांगुलकी अपेक्षा कहा गया है। यदि इसके उत्सेधांगुल कर लिये जाय तो इसमें २९ अंकप्रमाण मनुष्यराशि समा जायगी, सो भी बात नहीं है, क्योंकि, उत्कृष्ट अवगाहनाकी अपेक्षा २९ अंकप्रमाण मनुष्यराशिका उक्त क्षेत्र में समा जाना अशक्य है। आकाशकी अवगाहनाकी विचित्रतासे यह कोई दोष नहीं रहता है, ऐसा कहना भी युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि, अवगाह्यमान पदार्थोंका संयोगरूप अन्योन्य प्रवेशरूप संबन्ध ही अल्प क्षेत्रमें बहुत पदार्थों के अधिष्ठानके लिये कारण है। परंतु मनुष्यों में परस्पर इसप्रकारका संबन्ध गर्भादि अवस्थाको छोड़कर प्रायः नहीं पाया जाता है, इसलिये सूत्र में जो कोडाकोडाकोड़ा कोड़ीसे नीचेकी और कोडाकोड़ाकोड़ीसे ऊपरकी संख्या मनुष्योंका प्रमाण कहा है वही युक्तियुक्त है। दूसरे यदि उनतीस अंकप्रमाण मनुष्यराशि मान ली जाय, तो मनुष्यनियोंसे तिगुणे अथवा, सातगुणे जो सर्वार्थसिद्धिके देवोंका प्रमाण कहा है वह नहीं बन सकता है, क्योंकि, एक लाख योजनप्रमाण सर्वार्थसिद्धिके विमान में इतने देवोंका रहना अशक्य है। इसका कारण यह है कि एक लाख योजनके क्षेत्रफलके उत्सेधरूप प्रतरांगुल करने पर भी उनका प्रमाण अट्ठाईस अंकप्रमाण आता है और सर्वार्थसिद्धिके देवोंका प्रमाण मनुष्यराशिको २९ अंकप्रमाण मान लेने पर ३० अंकप्रमाण होता है। यह तो निश्चित है कि एक देव संख्यात प्रतरांगुलोंमें रहता है, परंतु यहां क्षेत्रफलके प्रतरांगुल देवोंके प्रमाणसे कम हैं, इसलिये ३० अंकप्रमाण देवोंका २८ अंकप्रमाण क्षेत्रफलवाले क्षेत्रमें रहना किसी प्रकार भी संभव नहीं है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि सूत्रमें पर्याप्त मनुष्यराशिका प्रमाण जो कोडाकोड़ाकोडाकोड़ीके नीचे और कोडाकोडाकोड़ीके ऊपर कहा है वही ठीक है। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर संयतासंयत गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें पर्याप्त मनुष्य द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ॥ ४६॥ १ एतेभ्यः पर्याप्तमनुष्याणां संख्यातगुणत्वेऽपि आकाशस्यावगाहशक्तिवैचिध्यात्संशतिनं कर्तव्या । गी. जी. १५९ टीका. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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