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________________ सत्कर्मपंचिका परिचय जो सो कम्मोवक्कमो सो चउम्विहो, बंधणउवक्कमो उदीरणउवक्कमो उवसामणउवक्कमो विपरिणामउवक्कमो चेदि ।...... जो सो बंधणउवक्कमो सो चउब्विहो, पयडिबंधणउवक्कमो ठिदिबंधणउवकमो अणुभागबंधणउवकमो पदेसबंधणउवक्कमो चेदि ।...... एत्थ एदोस चउण्हमुवकमाणं जहा संतकम्मपयडिपाहुडे परविदं तहा परूवेयव्वं । जहा महाबंधे परूविदं, तहा परूवणा एत्थ किण्ण कीरदे? ण, तस्स पढमसमयबंधम्मि चेव वावारादो । ण च तमेत्थ वोत्तुं जुतं, पुणरत्तदोसप्पसंगादो । (धवला क. पत्र १२६७) यहां जो बंधनके चारों उपक्रमोंका प्ररूपण महाबंधके अनुसार न करके संतकम्मपाहुडके अनुसार करनेका निर्देश किया गया है, उसीका पंचिकाकारने स्पष्टीकरण किया है कि महाकम्मपयडिपाहुडके किन किन विशेष अधिकारोंसे यहां संतकम्मपाहुड पदद्वारा अभिप्राय है। पंचिकामें उपक्रम अधिकारके पश्चात् उदयअनुयोगद्वारका कथन है जैसा उसके अन्तिम भागके अवतरणसे सूचित होता है । यथा-- उदयाणियोगद्दारं गदं। यहांके कोई विशेष अवतरण हमें उपलब्ध नहीं हुए। अतः धवलासे मिलान नहीं किया जा सका । तथापि उपक्रमके पश्चात् उदय अनुयोगद्वारका प्ररूपण तो है ही। उक्त पंचिका यहीं समाप्त हो जाती है। इससे जान पड़ता है कि इस पंचिकामें केवल निबंधन, प्रक्रम, उपक्रम और उदय, इन्हीं चार अधिकारोंका विवरण है । शेष मोक्ष आदि चौदह अनुयोगोंका उसमें कोई विवरण यहां नहीं है। इससे जान पड़ता है कि यह पंचिका भी अधूरी ही है, क्योंकि पांचकाकी उत्थानिकामें दी गई सूचनासे ज्ञात होता है कि पंचिकाकार शेष अठारहों अधिकारोंकी पंचिका करनेवाले थे। शेष ग्रन्थभाग उक्त प्रतिमें छूटा हुआ है, या पंचिकाकारद्वारा ही किसी कारणसे रचा नहीं गया, इसका निर्णय वर्तमानमें उपलब्ध सामग्री परसे नहीं हो सकता। यह पंचिका किसकी रची हुई है, कब रची गई, इत्यादि खोजकी सामग्रीका भी अभी अभाव है । पंचिका प्रतिकी अन्तिम प्रशस्ति निम्न प्रकार है-- श्री जिनपदकमलमधुव्रतननुपम सत्पात्रदाननिरतं सम्यक्वनिधानं कित्ते वधू मनसिजनेने शांतिनाथ नेसेदं धरैयोल ॥ घरेयोल्.........पुरजिदनुपमं चारुचारित्रनादुन्नतधैर्य सादिपर्यंत रदिय नेनिसि पंपिंगुणानीकदि .........सद्भक्तियादेशदि सत्कर्मदा पंचियं विस्तरदिं श्रीमाधणंदिवतिगे बरेसिदं रागदिं शांतिनाथं ॥ उदविदमुददि सरकमंद पंजियननुपमाननिर्वाणसुखप्रदम बरेथिसि शान्तं मदरहितं माषणंदियतिपतिगित्तं ॥ श्री माघनंदिसिद्धान्तदेवगै सत्कर्मपंजियं श्रीमददयादित्यं प्रतिसमानं बरेदं ॥ मंगलं महा॥ पं. लोकनाथजी शास्त्रीकी सूचनानुसार इस " अन्तिम प्रशस्तिमें दो तीन कानडीमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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