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________________ षट्खंडागमकी प्रस्तावना आगे चलकर कहा गया है चचारि आउगाणं णीचुच्चागोदाणं पुणो एक्कारस-पयडीणं सगसेसछप्पण्णबंधपयडिसूचयणमिदि। चउसट्रिपयडीणमप्पाबहुगं गंथयारेहि परविदं । अम्हेहि पुणो सूचिदपयडीणमप्पाबहगं गंथ उत्तप्पाबहुगबलेण परूविदं । ............एवं पक्कमाणिओगो गदो। आगे चलकर पुनः आया है एत्थ पयडीसु जहण्णपक्कमदव्वाणं अप्पाबहुगं उच्चदे। तं जहा-सम्वत्थोवमपञ्चक्खाणमाणे पक्कमदग्वं । कुदो ? इत्यादि । यहां उपर्युक्त निबंधन अधिकारके पश्चात् प्रक्रम अधिकारका प्रारम्भ बतलाया है और क्रमशः उसके उत्कृष्ट और जघन्य प्रक्रम द्रव्यके अल्पबहुत्वका कथन किया है, तथा इस बातकी सूचना की है कि चौंसठ प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व प्रन्थकारने स्वयं कर दिया है, अतः हम यहाँ केवल उनके द्वारा सूचित प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व उक्त ग्रंथोक्त अल्पबहुत्वके बलसे करते हैं। धवलामें भी निबंधन अनुयोगद्वारके पश्चात् आठवें अनुयोग प्रक्रमका वर्णन है, और वहां उत्तरप्रकृतिप्रक्रमके उत्कृष्टउत्तरप्रकृतिप्रक्रम और जघन्यउत्तरप्रकृतिप्रक्रम ऐसे दो भेद करके वर्णन प्रारम्भ किया गया है । तथा वहां वह सब अल्पबहुत्व पाया जाता है जो पंचिकाकारने स्वीकार किया है और जिसके सम्बन्धमें शंकादि उठाकर उचित समाधान किया है। उत्तरपय डिपक्कमो दुविहो, उक्कस्सउत्तरपयडिपक्क्रमो जहण्णउत्तरपयडिपक्कमो चेदि । तत्थ उक्कस्सए पयदं । सव्वत्थोवं अपच्चक्खाणकसायमाणपदेसग्गं। अपच्चक्खाणकोधे विसेसाहिया।......... जहण्णए पयदं । सम्वत्थोवमपच्चक्खाणमाणे पक्कमदव्वं । कोधे विसेसाहिया। ......... एवं पकमे त्ति समत्तमणिओगद्दारं । (धवला क. प्रति, पत्र १२६६-६७) प्रक्रम अधिकारके पश्चात् पंचिकामें उपक्रमका वर्णन इस प्रकार प्रारंभ होता है-- उवक्कमो चउब्विहो-बंधणोवक्कमो उदीरणोवकमो उवसामणोवक्कमो विपरिणामोवक्कमो चेदि । तत्थ बंधणोवक्कमो चउविहो पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेसबंधणोवक्कमणभेदेण । पुणो एदेसिं चउणं पि बंधणोवक्रमाणं अस्थो जहा सत्तकम्मपाहुडम्मि उत्तो तहा वत्तव्यो। सत्तकम्मपाहुडम्मि णाम कदम ! महाकम्मपयडिपाहुडस्स चउव्वीसमणियोगद्दारेसु विदियाहियारो वेदणा णाम । तस्स सोलसाणियोगद्दारेसु चउत्थ-छट्टम-सत्तमणियोगद्दाराणि दध-काल-भावविहाणणामधेयाणि । पुणो तहा महाकम्मपयडिपाहुडस्स पंचमो पयडिणामाहियारो। तत्थ चत्तारि अणियोगद्दाराणि अट्टकम्माणं पयडि-ट्रिदि-अणुभाग-पदेससत्ताणि परूविय सूचिदुत्तरपयडि-टिदि-अणुभाग-पदेससत्तत्तादो । एदाणि सत्तकम्मपाहुडं णाम | मोहणीयं पडुच्च कसायपाहुडं पि होदि । (सत्कर्मपंचिका) यहां उपक्रमके चार भेदोंका उल्लेख करके प्रथम बंधन उपक्रमके, पुनः प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप चार प्रभेदोंके विषयमें यह बतलाया गया है कि इनका अर्थ जिसप्रकार संतकम्मपाहुडमें किया गया है उसप्रकार करना चाहिए। उस संतकम्मपाहुडसे भी प्रकृतमें वेदनानुयोगद्वारके तीन और प्रकृति अनुयोगद्वारके चार अधिकारोंसे अभिप्राय है। यहां भी पंचिकाकार स्पष्टतः धवलाके निम्न उल्लिखित प्रकरणका विवरण कर रहे हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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