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________________ सत्कर्मपंचिका परिचय इस प्रकरण के मिलान के लिए हमने वीरसेन स्वामीके धवलान्तर्गत निबन्धन अधिकारको निकाला । वहां आदि में ही निबंधन के छह निक्षेपोंका कथन विद्यमान है और उनमें तृतीय द्रव्यनिक्षेपका कथन शब्दशः ठीक वही है जो पंजिकाकारने अपने अर्थ देनेसे ऊपरकी पंक्ति में उद्धृत किया है और उसीका उन्होंने अर्थ कहा है । यथा— निबंधणेति अणियोगद्दारे निबंधणं ताव अपयदणिबंधणणिराकरणटुं णिक्खिवियब्वं । तं जहाणामणिबंधणं, ठवणणिबंधणं, दब्वणिबंधणं, खेत्तणिबंधणं, कालणिबंधणं, भावणिबंधणं चेदि छविहं णिबंधणं होदि । इसके पश्चात् नाम और स्थापना निबंधनका स्वरूप बतलाया गया है और उसके पश्चात् द्रव्यनिबंधन का वर्णन इस प्रकार है 1 जं दब्वं जाणिदव्वाणि अस्सिदूण परिणमदि, जस्स या सहस्स ( दव्वस्स) सहावो दव्वंतरपडिबद्धो तं दव्वणिबंधणं । ( धवला क. प्रति, पत्र १२६० ) प्रतिमें ' सदस्स ' पद अशुद्ध है, वहां 'दव्वस्स' पाठ ही होना चाहिए। यहां वाक्य के ये शब्द ' जस्स वा दव्बस्स सहावो दव्वंतरपडिबद्धो ' ठीक वे ही हैं, जो पंजिकामें भी पाये जाते हैं, और इन्हीं शब्दों का पंजिकाकारने 'एत्थ जीवदव्वस्स सहावो णाणदंसणाणि' आदि वाक्यों में अर्थ किया है । यथार्थतः जितना वाक्यांश पंजिकामें उद्धृत है, उतने परसे उसका अर्थ व्यवस्थित करना कठिन है । किन्तु धवला के उक्त पूरे वाक्यको देखनेमात्र से उसका रहस्य एकदम खुल जाता है । इसपर से पंजिकाकारकी शैली यह जान पड़ती है कि आधारग्रन्थके सुगम प्रकरणको तो उसके अस्तित्वकी सूचनामात्र देकर छोड़ देना, और केवल कठिन स्थलोंका अभिप्राय अपने शब्दों में समझाकर और उसी सिलसिले में मूलके विवक्षितपदों को लेकर उनका अर्थ कर देना । इस परसे पंजिकाकारकी उस प्रतिज्ञाका भी स्पष्टीकरण हो जाता है, जहां उन्होंने कहा है कि तस्साइगंभीरत्तादो अत्थविसमपदाणमध्ये थोरुद्वयेण पंचियसरूवेण भणिस्सामो ' अर्थात् उन अठारह अनुयोगद्वारोंका विषय बहुत गहन होनेसे हम उनके अर्थकी दृष्टिसे विषमपदोंका व्याख्यान करते हैं, और ऐसा करने में मूलके केवल थोड़ेसे उद्धरण लेंगे । यही पंचिकाका स्वरूप है । मूलप्रन्थके वाक्योंको अपनी वाक्यरचनामें लेकर अर्थ करते जाना अन्य टीकाग्रन्थों में भी पाया जाता है । उदाहरणार्थ, विधानन्दिकृत अष्टसहस्री में अकलंकदेवकृत अष्टशती इसीप्रकार गुंथी हुई है। पंजिकाकी यह विशेषता है कि उसमें पूरे ग्रन्थका समावेश नहीं किया जाता, केवल विषमपदको प्रहण कर समझाया जाता है । $ सत्कर्मपंचिका उक्त अवतरणके पश्चात् शास्त्रीजीने लिखा है " इस प्रकार छह द्रव्योंके पर्यायान्तरका परिणमन विधान- विवरण होनेके बाद निम्न प्रकार प्रतिज्ञा वाक्य है संपहि पक्कमाहियारस्स उक्कस्सपकमदब्वस्स उत्तप्पा बहुगविवरणं कस्सामो । तं जहा- अप्प चक्खाणमाणस्स उक्कस्सपक्कम दव्वं थोवं । कुदो १" इत्यादि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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