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________________ षटखंडागमकी प्रस्तावना १ महाकर्मप्रकृतिपाहुडके चौबीस अनुयोगद्वारों से प्रथम दो अर्थात् कृति और वेदना, वेदनाखंडके अन्तर्गत रचे गये हैं। फिर अगले स्पर्श, कर्म, प्रकृति और बंधनके चार भेदोंमेंसे बंध और बंधनीय वर्गणाखंडके अन्तर्गत हैं । बंधविधान महाबंधका विषय है, तथा बंधक खुदाबंध खंडमें सन्निहित है । इस स्पष्ट उल्लेखसे हमारी पूर्व बतलाई हुई खंड-व्यवस्थाकी पूर्णतः पुष्टि हो जाती है, और वेदनाखंडके भीतर चौबीसों अनुयोगद्वारों को मानने तथा वर्गणाखंडको उपलब्ध धवलाकी प्रतियोंके भीतर नहीं माननेवाले मतका अच्छी तरह निरसन हो जाता है। २ उक्त छह अनुयोगद्वारोंसे शेष अठारह अनुयोगद्वारोंकी ग्रन्थरचनाका नाम सत्तकम्म (सत्कर्म) है, और इसी सत्कर्मके गंभीर विषयको स्पष्ट करनेके लिए उसके थोड़े थोड़े अवतरण लेकर उनके विषमपदोंका अर्थ प्रस्तुत ग्रंथमें पंचिकारूपसे समझाया गया है। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि शेष अठारह अनुयोगद्वारोंसे वर्णन करनेवाला यह सत्कर्म ग्रन्थ कौनसा है ? इसके लिए सत्कर्मपंचिकाका आगेका अवतरण देखिए, जो इस प्रकार है ___ तं जहा । तत्र ताव जीवदधस्स पोग्गलदव्यमवलंबिय पजायेसु परिणमणविहाणं उच्चदे-जीवदव्वं दुविहं, संसारिजीवो मुक्कजीवो चेदि । तत्थ मिच्छत्तासंजमकसायजोगेहि परिणदसंसारिजीवो जीव-भवनेत्त-पोग्गल-विवाइसरूवकम्मपोग्गले बंधियण पच्छा तेहिंतो पुपत्त-छविहफलसरूवपज्जायमणेय संसरदो जीवो परिणमदि त्ति । एदेसिं पजायाणं परिणमणं पोग्गलणिबंधणं होदि । पुणो मुक्कनीवस्स एवंविध-णिबंधणं णत्थि, किंतु सत्थाणेण पज्जायंतरं गच्छदि । पुणो जस्स वा व्यस्त सहावो दव्वंतरपडिबद्धो इदि । एदस्सस्थो-एत्थ जीवदध्वस्स सहावा णाणदसणाणि | पुणो दुविहजीवाणं णाणसहावविवक्खिदजीवहिंतो वदिरित्त-जीवपोग्गलादि-सव्वदव्वाणं परिच्छेदणसहावेण पज्जायंतरगमणणिबंधणं होदि । एवं दसणं पिवत्तव्वं । यहां पंजिकाकार कहते हैं कि वहाँपर अर्थात् उनके आधारभूत ग्रन्थके अठारह अधिकारों से प्रथमानुयोगद्वार निबंधनकी प्ररूपणा सुगम है। विशेष केवल इतना है कि उस निबंधनका निक्षेप छह प्रकारसे बतलाया गया है। उनमें तृतीय अर्थात् द्रव्यनिक्षेपके स्वरूपकी प्ररूपणामें आचार्य इस प्रकार कहते हैं। जिसका खुलासा यह है कि यहां पर पुद्गलद्रव्यके अवलं. बनसे जीवद्रव्यके पर्यायोंमें-परिणमन विधानका कथन किया जाता है। जीवद्रव्य दो प्रकारका है, संसारी व मुक्त । इनमें मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगसे परिणत जीव संसारी है । वह जीवविपाकी, भवविपाकी, क्षेत्रविपाकी और पुद्गलविपाकी कर्मपुद्गलोंको बांधकर अनन्तर उनके निमित्तसे पूर्वोक्त छह प्रकारके फलरूप अनेक प्रकारकी पर्यायोंमें संसरण करता है, अर्थात् फिरता है । इन पर्यायोंका परिणमन पुद्गळके निमित्तसे होता है । पुनः मुक्तजीवके इस प्रकारका परिणमन नहीं पाया जाता है। किन्तु वह अपने स्वभावसे ही पर्यायान्तरको प्राप्त होता है। ऐसी स्थितिमें 'जस्स वा दव्वस्स सहावो दव्वतरपडिबद्धो इदि ' अर्थात् — जिस द्रव्यका स्वभाव द्रव्यान्तरसे प्रतिबद्ध है ' इति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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