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षट्खंडागमकी प्रस्तावना कंदवृत्त पध हैं जो कि शान्तिनाथ राजाके प्रशंसात्मक पद्य हैं । उक्त राजाने ' सत्कर्मपंचिका ' को बिस्तारसे लिखवाकर भक्ति के साथ श्री माघनंद्याचार्यजीको दे दिया। प्रति लिखनेवाला श्री उदयादित्य है।" इसके ताडपत्रोंकी संख्या २७ और ग्रन्थ-प्रमाण लगभग ३७२६ श्लोकके है।
__ ३ महाबंध-परिचय मूडबिद्रीकी महाधवल नामसे प्रसिद्ध ताडपत्रीय प्रतिके पत्र २७ पर पूर्वोक्त सत्कर्मपंजिका समाप्त हुई है । २८ वां ताड़पत्र प्राप्त नहीं है । आगे जो अधिकार-समाप्तिकी व नवीन अधि. कार-प्रारंभकी प्रथम सूचना पाई जाती है वह इसप्रकार है
एवं पगदिसमुक्कित्तणा समत्तं (त्ता)। जो सो सवबंधो णो सब्वबंधो...इत्यादि । तथा ' एवं कालं समत्तं ' ' एवं अंतरं समत्तं ' इत्यादि ।
पं. लोकनाथजी शास्त्रीके शब्दोंमें 'इस रीतिसे भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव और अल्पबहुत्वका वर्णन है'। अल्पबहुत्वकी समाप्ति-पुष्पिका इसप्रकार है
एवं परत्थाणअद्धाअप्पाबहुगं समत्तं । एवं पगदिबंधो समत्तो ।
इस थोड़ेसे विवरणसे ही अनुमान हो जाता है कि प्रस्तुत ग्रंथरचना महाबंधके विषयसे संबन्ध रखती है । हम प्रथम भागकी भूमिकाके पृष्ठ ६७ पर धवला और जयधवलाके दो उद्धरण दे चुके हैं, जिनमें कहा गया है कि महाबंधका विषय बंधविधानके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश, इन चारों प्रकारोंका विस्तारसे वर्णन करना है। इन प्रकारोंका कुछ और विषय-विभाग धवला प्रथम भागके पृष्ठ १२७ आदि पर पाया जाता है जहां जीवडाणकी प्ररूपणाओंका उद्गमस्थान बतलाते हुए कहा गया है
, बंधावहाणं चउन्विहं । तं जहा-पयडिबंधो टिदिबंधो अणुभागबंधो पदेसबंधी चेदि । तत्थ जो सो पयडिबंधो सो दुविहो, मूलपयडिबंधो उत्तरपयडिबंधो चेदि । तत्थ जो सो मूलपयडिबंधो सो थप्पो। जो सो उत्तरपयाडिबंधो सो दुविहो, एगेगुत्तरपयडिबंधो अवोगाढउत्तरपयडिबंधो चेदि । तत्थ जो सो एगेगुत्तरपयडिबंधो तस्स चउवीस आणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति | तं जहा-समुश्कित्तणा सब्यबंधो णोसव्वबंधो अक्कस्सबंधो अणुक्कस्सबंधो जहण्णबंधो अजहण्णबंधो सादियबंधो अणादियबंधो धुवबंधी अद्धवबंधो बंध. सामित्तविचयो बंधकालो बंधंतर बंधसणियासो णाणाजीवेहि भंगविचयो भागाभागाणुगमो परिमाणाणुगमो खेत्ताणुगमो पोसणाणुगमो कालाणुगमो अंतराणुगमो भावाणुगमो अप्पाबहुगाणुगमो चेदि ।
यहां प्रकृतिबंध विधानके एकैकोत्तरप्रकृतिबंधके अन्तर्गत जो अनुयोगद्वार गिनाये गये हैं, उनमेंसे आदिके समुत्कीर्तना सर्वबंध और नोसर्वबंध, इन तीन, तथा अन्तके भंगविचयादि नौ अनुयोगद्वारोंका उल्लेख महाधवलाकी उक्त ग्रंथरचनाके परिचयमें भी पाया जाता है । अतः यह भाग महाबंधके प्रकृतिबंधविधान अधिकारकी रचनाका अनुमान किया जा सकता है। यह प्रकृतिबंध ताड़पत्र ५० पर अर्थात् २३ पत्रोंमें समाप्त हुआ है ।
प्रकृतिबंध अधिकारकी समाप्तिके पश्चात् महाधवलमें ग्रंथरचना इसप्रकार है
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