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महाबंध - परिचय
' णमो अरिहंताणं ' इत्यादि
एथो ठिदिबंधो दुविधो, मूलपगदिठिदिबंधो चेव उत्तरपगडिठिदिबंधो चेव । एत्थो मूलपगीडठिदिबंधो पुग्वगमणिज्जो | तत्थ इमाणि चत्तारि अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति । तं जहा - ठिदिबंधठाणपरूवणा, णिसेयपरूवणा अद्धाकंडयपरूवणा अप्पाबहुगेति । एवं भूयो ठिदिअप्पाबहुगं समत्तं । एवं मूलपगदिठिदिबंध (धे) चउग्वीसमणियोगद्दारं समतं ।
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भुजगार बंधेत्ति ।............
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इस प्रकार भुजगारबंध प्रारंभ होकर काल, अन्तर इत्यादि अल्पबहुत्व तक चला गया है । ' एवं जीवसमुदाहरेति समत्तमणियोगद्दाराणि । एवं ठिदिबंधं समतं ।
बंधविधानके इस स्थितिबंधनामक द्वितीय प्रकारका भी कुछ परिचय धवला प्रथम भागसे मिलता है । पृ. १३० पर कहा गया है-
हिदिबंधो दुविहो, मूलपयडिट्ठिदिबंधो उत्तरपयडिट्ठिदिबंधो वेदि । तत्थ जो सो मूलपयडिट्टिदिबंधो सो थप्पो । जो सो उत्तरपयडिद्विदिबंधो तस्स चउवीस अणियोगद्दाराणि । तंजहा- अद्धाछेदो, सब्वबंधी...... इत्यादि ।
यहां स्थितिबंधके मूलप्रकृति और उत्तरप्रकृति, इसप्रकार दो भेद करके उनमें से प्रथमको अप्रकृत होने के कारण छोड़कर प्रस्तुतोपयोगी द्वितीय भेदके चौवीस अनुयोगद्वार बतलाये गये हैं । इनसे पूर्वोक्त महाधलकी रचना महाबंध से संबंधकी सूचना मिलती है ।
यह स्थितिबंध ताड़पत्र ५१ से ११३ अर्थात् ६३ पत्रों में समाप्त हुआ है ।
इनसे आगे महाघवलमें क्रमशः अनुभागबंध और फिर प्रदेशबंधका विवरण पाया जाता है । यथा——
एवं जीवसमुदाहरेत्ति समत्तमणियोगद्वाराणि । एवं उत्तरपगदिअणुभागबंधो समत्तो । एवं अणुभागबंधो समत्तो । x × × ×
जो सो पदेसबंध सो दुविधो, मूलपगदिपदेसबंधी चेव उत्तरपगदिपदेसबंधी चैव । एत्तो मूलपयदिपदेसबंधी पुण्वं गमणीयो भागाभागसमुदाहारो अट्टविधबंधगस्स आउगभावो x x x x एवं अध्याबहुगं समतं । एवं जीवसमुदाहारेत्ति समत्तमणियोगद्दारं । एवं पदेसबंधं समत्तं ।
एवं बंधविधाणेत्ति समत्तमणियोगद्दारं । एवं चदुबंधो समत्तो भवदि ।
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अनुभागबंध ताड़पत्र ११४ से १६९ अर्थात् ५६ पत्रोंमें, व प्रदेशबंध १७० से २१९ अर्थात् ५० पत्रों में समाप्त हुआ है ।
यहीं महाघवल प्रतिकी ग्रंथरचना समाप्त होती है। इस संक्षिप्त परिचयसे स्पष्ट है कि माधव प्रतिके उत्तर भागमें बंधविधानके चारों प्रकारों-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशका विस्तारसे वर्णन है, तथा उनके भेद-प्रभेदों व अनुयोगद्वारों का विवरण धवलादि ग्रंथोंमें संकेतित विषय-विभाग के अनुसार ही पाया जाता है । अतएव यही भूतबलि आचार्यकृत महाबंध हो सकता है। दुर्भाग्यतः इसके प्रारंभका ताड़पत्र अप्राप्य होनेसे तथा यथेष्ट अवतरण न मिलनेसे जितनी जैसी चाहिये उतनी छानबीन ग्रंथकी फिर भी नहीं हो सकी । तथापि अनुभागबंध-विधानकी समाप्ति के
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