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________________ १, २, ७६.] दव्वपमाणाणुगमे एइदियपमाणपरूवणं [३०७ विणासिदएइंदिय-वीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदिय-असण्णिपंचिंदिय-णेरइय-तिरिक्ख-भवणवासियवाण-तर-जोइसिय-इत्थि-णqसय-हय-गय गंधव्य-णागादि-संसारिजीवाणं पुणो तेसु पवेसाभावादो। तदो एदे णव वि रासीओ वयसहिया णिच्छएण हवंति । एवं हि वए संते वि एदे णव वि रासीओ ण वोच्छेज्जति' सरागसरूवेण विदअदीदकालत्तादो। सव्वजीवरासीदो अदीदकाले अणंतगुणे संते अदीदकालेण सव्वजीवा अवहिरिजंति । ण च एवं, तधा अणुवलंभादो । जं तेण कालेण सव्यजीवाणं वोच्छेदो किण्ण होदि त्ति भणिदे ण, अभव्वपडिवक्खवोच्छेदे अभव्यत्तस्स विधिणासप्पसंगादो (सेसं वक्खाणं जहा ओघकालसुत्तम्हि भणिदं तहा वत्तव्यं ।) खेत्तेण अणंताणता लोगा ॥ ७६ ॥ ___ एदस्स सुत्तस्स वक्खाणे भण्णमाणे जहा मूलोघखेत्तसुत्तस्स भणिदं तहा भाणिदव्यं । णवरि एत्थ धुवरासी एवमुप्पाएदव्यो । तं जहा- बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिदिय-पंचिंदिय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय असंहीपंचेन्द्रिय, नारकी, तिर्यंच, भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, घोड़ा, हाथी, गंधर्व और नाग आदि पर्यायोंका नाश कर दिया है वे पुनः उन पर्यायों में प्रवेश नहीं करते हैं, इसलिये ये नौ राशियां नियमसे व्ययसहित हैं । इसप्रकार इन नौ राशियोंके व्ययसहित होने पर भी ये नौ राशियां कभी भी विच्छिन्न नहीं होती हैं, क्योंकि, अतीतकालसे वे अपने सरागस्वरूपसे स्थित हैं । यदि संपूर्ण जीवराशिसे अतीतकाल अनन्तगुणा होता तो अतीतकालसे संपूर्ण जीवराशि अपहृत होती; परंतु ऐसा तो है नहीं, क्योंकि, इसप्रकारकी उपलब्धि नहीं होती है। शंका-उस अतीत कालके द्वारा संपूर्ण जीवराशिका विच्छेद क्यों नहीं होता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, अभव्यशाशकी प्रतिपक्षभूत भव्यराशिका विच्छेद मान लेने पर अभव्यत्वकी सत्ताके नाशका प्रसंग आ जाता है। शेष व्याख्यान ओघप्ररूपणाके कालसूत्रमें जिसप्रकार कर आये हैं उसप्रकार उसका कथन करना चाहिये। क्षेत्रप्रमाणकी अपेक्षा पूर्वोक्त एकेन्द्रियादि नौ जीवराशियां अनन्तानन्त लोकप्रमाण हैं ॥ ७६ ॥ इस सूत्रका व्याख्यान करने पर जिसप्रकार मूलोघ प्ररूपणाके समय क्षेत्रसूत्रका अर्थ कह आये हैं उसप्रकार कथन करना चाहिये। परंतु यहां पर भुवराशि इसप्रकार उत्पन्न करना चाहिये । वह इसप्रकार है द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रिय जीवोंकी राशिको संपूर्ण जीव १ प्रतिषु 'वोच्छेज्जतो ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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