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________________ ३०८] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, २, ७६. अनिंदियाणं रासिं सव्यजीवरा सिस्सुवरि पक्खिविय तस्स चैव वग्गं एइंदियभाजिदं तत्थेव पक्खित्ते एइंदियधुवरासी होदि । तं संखेज्जरूवेहि भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खिते एवं दियपज्जत्तधुवरास ( होदि । एइंदियधुवरासिं संखेज्जरूवेहि गुणिदे एइंदियअपज्जत्तवसी होदि । पुणो इंदियधुवरासिमसंखेज्जलोएण गुणिदे बादरेइंदियध्रुवरासी होदि । तमसंखेज्जलोएण गुणिदे बादरेइंदियपज्जत्ताणं ध्रुवरासी होदि । तमसंखेज्जलोएण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते बादरेइंदियअपज्जत्ताणं धुवरासी होदि । सामण्णे इंदियध्रुवरासिम संखेअलोएण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते सुहुमेइंदियधुवरासी होदि । तम्हि संखेज्जरूवेहि भागे हिदे लद्धं तम्हि चैव पक्खिते सुहुमेइंदियपजत्तबुवरासी होदि । सामण्णसुहुमईदियधुवरासिं संखेज्जरूवेहि गुणिदे मुहुमेइंदियअपज्जत्तधुरासी होदि । सगसगधुवरासीहि सव्वजीवरासिउवरिमवग्गे खंडिदादओ ओघमिच्छाइडीणं व वत्तव्या । वरि पमाणं भणमाणे एइंदियाणं ओघभंगो । एइंदियपज्जत्ता सव्वजीवरासिस्स संखेज्जा भागा । तेसिं चेव अपज्जत्ताणं पमाणं सव्वजीवरासिस्स संखेज्जदिभागो । बादरेइंदियाणं राशिमें ऊपर प्रक्षिप्त करके और उन्हीं द्वीन्द्रियादि जीवोंके प्रमाणके वर्गको एकेन्द्रिय जीवराशि से भाजित करके जो लब्ध आवे उसे उसी पूर्वोक्त राशि में प्रक्षिप्त करने पर एकेन्द्रिय जीवराशिसंबन्धी ध्रुवराशि होती है । इसे संख्यातसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी पूर्वोक्त ध्रुवराशिमें मिला देने पर एकेन्द्रिय पर्याप्तसंबन्धी ध्रुवराशि होती है । एकेन्द्रिय जीवंसबन्धी ध्रुवराशिको संख्यात से गुणित करने पर एकेन्द्रिय अपर्याप्तसंबन्धी ध्रुवराशि होती । पुनः एकेन्द्रिय जीवसंबन्धी ध्रुवराशिको असंख्यात लोकसे गुणा करने पर बादर एकेन्द्रिय जीवसंबन्धी ध्रुवराशि होती है । इसे असंख्यात लोकोंसे गुणित करने पर बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त संबन्धी ध्रुवराशि होती है। इसमें असंख्यात लोकोंका भाग देने पर जो लब्ध आवे उसे उसीमें मिला देने पर बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तसंबन्धी ध्रुवराशि होती है । सामान्य एकेन्द्रियसंबन्धी ध्रुवराशिमें असंख्यात लोकों का भाग देने पर जो लब्ध आवे उसको उसी में मिला देने पर सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों की ध्रुवराशि होती है। इसे संख्यातसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे इसी सूक्ष्म एकेन्द्रिय ध्रुवराशिमें मिला देने पर सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तसंबन्धी ध्रुवराशि होती है। सामान्य सूक्ष्म एकेन्द्रियसंबन्धी ध्रुवराशिको संख्यात से गुणित करने पर सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त संवन्धी ध्रुवराशि होती है। इन अपनी अपनी ध्रुवराशियोंके द्वारा संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गके ऊपर खंडित आदिकका कथन ओघ मिथ्यादृष्टियों के खंडित आदिकके कथन के समान करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि प्रमाणका कथन करते समय एकेन्द्रियों का प्रमाण सामान्य प्ररूपणा के समान कहना चाहिये । एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव संपूर्ण जीवराशिके संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। उन्हीं एकेन्द्रिय अपर्याप्तों का प्रमाण संपूर्ण जीवराशि के संख्यातवें भाग हैं । बादर एकेन्द्रिय तथा बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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