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गणित की विशेषता
( ७ ) सासादन सम्यग्दृष्टियों का प्रमाण एक प्राचीन गाथामें ५२ करोड़ और दूसरी गाथामें ५० करोड़ पाया जाता है | धवलाकारने प्रथम मत ही ग्रहण करनेका आदेश किया है, क्योंकि, वह प्रमाण आचार्य परंपरागत है । (पृ. २५२ )
( ८ ) सूत्र ४५ में मनुष्य पर्याप्त मिथ्यादृष्टि राशिका प्रमाण बतलाया है 'कोड़ा कोड़ा कोड़ से ऊपर और कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी से नीचे' अर्थात् छठवें वर्ग के ऊपर और सातवें वर्गके नीचे । किन्तु एक दूसरा मत है कि मनुष्य-पर्याप्त राशि वादाल वर्गके ( ४२९४९६७२९६ ) अर्थात् द्विरूप वर्गधाराके पांचवें वर्गस्थानके घनप्रमाण है । धवलाकारने इस दूसरे मतका परिहार किया है और उसके दो कारण दिये हैं । एक तो वादालका घन २९ अंक प्रमाण होकर भी कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी के ऊपर निकल जाता है, जिससे सूत्रोक्त अंक- सीमाओं का सर्वथा उल्लंघन हो जाता है । दूसरे यदि ढाई द्वपिके उस भागका क्षेत्रफल निकाला जाय जहां मनुष्य विशेषतासे पाये जाते हैं, तो उसका क्षेत्रफल केवल २५ अंक प्रमाण प्रतरांगुलों में आता है, जिससे उस २९ अंक प्रमाण मनुष्यराशिका वहां निवास असंभव सिद्ध होता है । यहीं नहीं, सर्वार्थसिद्धि के देवोंका प्रमाण मनुष्य पर्याप्त शिसे संख्यातगुणा कहा गया है जबकि सर्वार्थसिद्धि विमानका प्रमाण केवल जम्बूद्वीप के बराबर है । अतएव उक्त प्रमाणसे इन देवोंकी अवगाहना भी उनकी निश्चित निवास-भूमिमें असंभव हो जायगी । अतः उक्त राशिका प्रमाण सूत्रोक्त अर्थात् कोड़ाकोड़ा कोड़ा - कोड़ीसे नीचे ही मानना उचित है । (पृ. २५३-२५८ )
( ९ ) आहारमिश्रकाययोगियोंका प्रमाण आचार्य - परम्परागत उपदेशसे २७ माना गया है, किन्तु सूत्र १२० में उनका प्रमाण ' संख्यात' शब्द के द्वारा सूचित किया गया है । इसपर से धवलाकारका मत है कि उक्त राशिका प्रमाण निश्चित २७ नहीं मानना चाहिये, किन्तु मध्यम संख्यातकी अन्य कोई संख्या होना चाहिये, जिसे जिनेन्द्र भगवान् ही जानते हैं । यद्यपि २७ भी मध्यम संख्यातका ही एक भेद है और इसलिये उसके भी उक्त प्रमाणप्ररूपण में ग्रहण करने की संभावना हो सकती है, किन्तु इसके विरुद्ध धवलाकारने दो हेतु दिये हैं । एक तो सूत्र में केवल 'संख्यात' शब्द द्वारा ही वह प्रमाण प्रकट किया गया है, किसी निश्चित संख्या द्वारा नहीं | दूसरे मिश्रकाययोगियोंसे आहारकाययोगी संख्यातगुणे कहे गये है । दोनों विकल्पों में यहां सामंजस्य बन नहीं सकता, क्योंकि, सर्व अपर्याप्तकाल से जधन्य पर्याप्तकाल भी संख्यात - गुणा माना गया है । ( पृ ४०२ )
६ गणितकी विशेषता
धवलाकारने अपने इस ग्रंथभागके आदिमें ही मंगलाचरण गाथामें कहा है कि-' णमिण जिणं भणिमो दव्वणिओगं गणियसारं ' अर्थात् जिनेन्द्रदेवको नमस्कार करके हम द्रव्यप्रमाणानुयोगका कथन करते हैं, जिसका सार भाग गणितशास्त्र से सम्बंध रखता है, या जो गणित-शास्त्र- प्रधान है । यह प्रतिज्ञा इस ग्रंथ में पूर्णरूपसे निवाही गई है | धवलाकारने इस ग्रंथभागमें गणितज्ञानका खूब उप
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