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षटखंडागमकी प्रस्तावना और न केवली द्वारा भाषित प्रमाणभूत अन्य सूत्रसे इसका सामञ्जस्य बैठता है। उन्होंने एक प्राचीन गाथा उद्धृत करके बतलाया है कि एक मुहूर्तके उच्छ्वासोंका ठीक प्रमाण ३७७३ है,
और इसी प्रमाण द्वारा सूत्रोक्त एक दिवसमें १,१३,१९० प्राणोंका प्रमाण सिद्ध होता है । पूर्वोक्त मतसे तो एक दिनमें केवल २१,६०० प्राण होंगे, जो किसी प्रकार भी सिद्ध नहीं । (पृ. ६६.६७)
(४) उपशामक जीवोंकी संख्याक विषयमें उत्तरप्रतिपत्ति और दक्षिणप्रतिपत्ति, ऐसी दो भिन्न . मान्यताएं दी हैं। प्रथम मतानुसार उक्त जीवोंकी संख्या ३०४, तथा द्वितीय मतानुसार उनसे ५ कम अर्थात् २९९ है। इस मतभेदकी प्ररूपक दो गाथाएं भी उद्धृत की गई हैं। उनमेंसे एकमें एक तीसरा मत और स्फुटित होता है, जिसके अनुसार उपशामकोंकी संख्या पूरे ३०० है । इन मतभेदोंपर धवलाकारने कोई ऊहापोह नहीं किया, उन्होंने केवलमान उनका उल्लेख ही किया है।
(५) इन्हीं उत्तर और दक्षिण प्रतिपत्तियोंका मतभेद प्रमत्तसंयत राशिके प्रमाण-प्ररूपणमें भी पाया जाता है। उत्तरप्रतिपत्तिके अनुसार प्रमत्तोंका प्रमाण ४,६६,६६,६६४ है, किन्तु दक्षिणप्रतिपत्त्यनुसार यह प्रमाण ५,९३,९८,२०६ आता है। इन मतभेदोंके बीच निर्णय करनेका भी धवलाकारने यहां कोई प्रयत्न नहीं किया। किन्तु दक्षिणप्रतिपत्तिके प्रमाणमें जो कुछ आचार्योंने यह शंका उठाई है कि सब तीर्थंकरोंमें सबसे बड़ा शिष्यपरिवार पद्मप्रभस्वामीका ही था, किन्तु वह परिवार भी मात्र ३,३०,००० ही था । तब फिर जो सर्व संपतोंकी पूरी संख्या ८९९९९९९७ एक प्राचीन गाथामें बतलाई है, वह कैसे सिद्ध हो सकती है ? इसका परिहार धवलाकारने यह किया है कि इस हुंडावसर्पिणी कालवी तीर्थंकरों के साथ भले ही संयतोंका उक्त प्रमाण पूर्ण न होता हो, किन्तु अन्य उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियोंमें तो तीर्थकरोंका शिष्य-परिवार बड़ा पाया जाता है । दूसरे, भरत और ऐरावत क्षेत्रोंकी अपेक्षा मनुष्योंका प्रमाण विदेह क्षेत्रमें संख्यातगुणा पाया जाता है, अतः वहां उक्त प्रमाण पूरा हो सकता है । इसलिये उक्त प्रमाणमें कोई दूषण नहीं है। (पृ. ९८-९९)
(६) पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल देवोंके अवहारकालके आश्रयसे बतलाया गया है। किन्तु धवलाकारका मत है कि कितने ही आचार्योंका उक्त व्याख्यान घटित नहीं होता है, क्योंकि, वानव्यन्तर देवोंका अवहारकाल तीनसौ योजनोंके अंगुलोंका वर्गमात्र बतलाया गया है। यहां कोई यह शंका कर सकता है कि पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टि संबंधी अवहारकाल ही गलत है और वानव्यन्तर देवोंका अवहारकाल ठीक है, यह कैसे जाना जाता है ? यहां धवलाकार कहते हैं कि हमारा कोई एकान्त आग्रह नहीं है, किन्तु जब दो बातोंमें विरोध है तो उनमेंसे कोई एक तो असत्य होना ही चाहिये । किन्तु इतना समाधानपूर्वक कह चुकने पर धवलाकारको अपनी निर्णायक बुद्धिकी प्रेरणा हुई और वे कह उठे-अहवा दोणि वि वक्खाणाणि भसञ्चाणि, एसा अम्हाणं पइज्जा।' अर्थात् उक्त दोनों ही व्याख्यान असत्य हैं, यह हम प्रतिज्ञापूर्वक कह सकते हैं । इसके आगे धवलाकारने खुद्दाबंध सूत्रके आधारसे उक्त दोनों अवहारकालोंको असिद्ध करके उनमें यथोचित प्रमाण-प्रवेश करनेका उपदेश दिया है । (पृ. २३१-२३२)
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