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________________ मतान्तर और उनका खंडन है कि जो बहुप्रदेशोंसे उपचित हो वही सूक्ष्म होता है, और इस मतकी पुष्टिमें एक गाथा भी उद्धृत की है जिसका अर्थ है कि काल सूक्ष्म है, किन्तु क्षेत्र उससे भी सूक्ष्मतर है, क्योंकि, अगुलके असंख्यातवें भागमें असंख्यात कल्प होते हैं । धवलाकारने इस मतका निरसन इसप्रकार किया है कि यदि सूक्ष्मत्वकी यही परिपा मान ली जाय तब तो द्रव्यप्रमाणका भी क्षेत्रप्रमाणके पश्चात् प्ररूपण करना चाहिये, क्योंकि, एक गाथानुमार, एक द्रव्यांगुलमें अनन्त क्षेत्रांगुल होनेसे क्षेत्र सक्षम और द्रव्य उनसे सूक्ष्मतर होता है । ( पृष्ठ २७-२८) (२) तिर्यक् लोकके विस्तार और उसी संबधसे रज्जूके प्रमाणके संबंधों भी दो मतोंका उल्लेख और विवेचन किया गया है । ये दो भिन्न भिन्न मत त्रिलोकप्रज्ञप्ति और परिकर्मके भिन्न भिन्न सूत्रों के आधारसे उत्पन्न हुए ज्ञात होते हैं। रज्जूका प्रमाण लानेकी प्रक्रियामें जम्बूद्वीपके अर्धच्छेदोंको रूपाधिक करनेका विधान पारकर्मसूत्रमें किया गया है जिसका 'एक रूप' अर्थ करनेसे कुछ व्याख्यानकारोंने यह अर्थ निकाला है कि तिर्यक्लोकका विस्तार स्वयंभूरमण समुद्र की बाहिरी वेदिकापर समाप्त हो जाता है। किन्तु त्रिलोकप्रज्ञाप्तिके आधारसे धवलाकारका यह मत है कि स्वयंभूरमण समुद्रसे बाहर असंख्यात द्वीपसागरों के विस्तार परिमाण योजन जाकर तिर्यक्लोक समाप्त होता है, अतः जम्बूद्वीपके अर्धच्छेदोंमें एक नहीं, किन्तु संख्यातरूप अधिक बढ़ाना चाहिये । इस मतका परिकर्मसूत्रसे विरोध भी उन्होंने इसप्रकार दूर कर दिया है कि उस सूत्रमें 'रूपाधिक' का अर्थ 'एकरूप अधिक' नहीं, किन्तु 'अनेक रूप अधिक' करना चाहिये। एक रूपवाले व्याख्यानको उन्होंने सच्चा व्याख्यान नहीं, किन्तु व्याख्यानाभास कहा है । अपने मतकी पुष्टिमें धवलाकारने यहां जो अनेक युक्तियां और सूत्रप्रमाण दिये हैं उनसे उनकी संग्राहक और समालोचनात्मक योग्यताका अन्छा परिचय मिलता है। इस विवेचनके अन्तमें उन्होंने कहा है 'एसो अस्थो जइवि पुब्वाइरियसंपदायविरुद्धो, तो वि तंतजुत्तिबलेण अम्हेहि परूविदो । तदो इदमित्थं वेत्ति हासग्गही काययो, अईदिनत्थविसए छदुवेत्थवियप्पिदजुत्तीणं णिण्णयहे उत्ताणुववत्तीदो । तम्हा उवएसं लक्षूग विसेसणिण्णयो एस्थ काययो। अर्थात् हमारा किया हुआ अर्थ यद्यपि पूर्वाचार्य-संप्रदायके विरुद्ध पड़ता है, तो भी तंत्रयुक्तिके बलसे हमने उसका प्ररूपण किया । अतः ' यह इसीप्रकार है ' ऐसा दुराग्रह नहीं करना चाहिये, क्योंकि, अतीन्द्रिय पदार्थों के विषयमें अल्पज्ञों द्वारा विकल्पित युक्तियों के एक निश्चयरूप निर्णयके लिये हेतु नहीं पाया जाता। अतः उपदेशको प्राप्त कर विशेष निर्णय करनेका प्रयत्न करना चाहिये । यहां ग्रंथकारकी कैसी निष्पक्ष, निर्मल, शोधक बुद्धि और जिज्ञासा प्रकट हुई है ? (पृ. ३४ से ३८) (३) एक मुहूर्तमें कितने उच्छ्रास होते हैं, यह भी एक मतभेदका विषय हुआ है । एक मत है कि एक मुहूर्तमें केवल ७२० प्राण अर्थात् श्वासोच्छ्वास होते हैं। किन्तु धवलाकार कहते हैं कि यह मत न तो एक स्वस्थ पुरुषके श्वासोच्छ्वासोंकी गणना करनेसे सिद्ध होता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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