________________
४.
षट्खंडागमकी प्रस्तावना अपेक्षासे प्रमाण कहा गया है । सूत्र नं. १५ से मार्गणास्थानोंमें प्रमाणका निर्देश प्रारंभ होता है, जिसके प्ररूपणकी सूत्र-संख्या निम्न प्रकार है-- सूत्रसे सूत्रतक कुल सूत्र
सूत्रसे सूत्रतक कुल सूत्र नरकगति १५ - २३ = ९ ज्ञान मार्गणा १४१ - १४७ = ७ तियंचगति २४ - ३९ = १६ संयम , १४८ - १५४ = ७ मनुष्यगति ४० - ५२ = १३ दर्शन ,,१५५ - १६१ = ७ देवगति ५३ - ७३ = २१ । लेझ्या ,, १६२ - १७१ = १० इंद्रिय मार्गणा ७४ -
भव्य , १७२ - १७३ = २ काय , ८७ - १०२ = १६ सम्यक्त्व ,, १७४ - १८४ = ११ योग , १०३ - १२३ = २१ संज्ञी , १८५ - १८९ = ५ वेद , १२४ - १३४ = ११ आहार , १९० - १९२ = ३ कषाय ,, १३५ - १४० = ६
५ मतान्तर और उनका खंडन धवलाकारने अपने समयकी उपलब्ध सैद्धान्तिक सम्पत्तिका जितना भरपूर उपयोग किया है वह ग्रंथके अवलोकनसे ही पूर्णतः ज्ञात हो सकता है । सूत्रों, व्याख्यानों और उपदेशोंका जो साहित्य उनके सन्मुख उपस्थित था, उसका सिंहावलोकन प्रथम भागकी भूमिकामें कराया जा चुका है। प्रस्तुत ग्रंथभागमें भी जहां प्रकृत विषयके विशेष प्रतिपादनके लिये धवलाकारको सूत्र, सूत्रयुक्ति व व्याख्यानका आधार नहीं मिला, वहां उन्होंने 'आचार्य परंपरागत जिनोपदेश'' परम गुरूपदेश, ''गुरूपदेश, ' व 'आचार्य-वचन ' के आश्रयसे प्रमाणप्ररूपण किया है। किन्तु विशेष ध्यान देने योग्य कुछ ऐसे स्थल हैं, जहां आचार्यने भिन्न भिन्न मतोंका स्पष्ट उल्लेख करके एकका खंडन और दूसरेका मंडन किया है । यहां हम इसीप्रकारके मत-मतान्तरोंका कुछ परिचय कराते हैं
(१) सूत्रकारने प्रमाणप्ररूपणामें प्रथम द्रव्यप्रमाण, फिर कालप्रमाण, और तत्पश्चात् क्षेत्रप्रमाणका निर्देश किया है। सामान्य क्रमानुसार क्षेत्र पहले और काल पश्चात् उल्लिखित किया जाता है, फिर यहां काल का क्षेत्रसे पूर्व निर्देश क्यों किया गया ? इसका समाधान धवलाकार करते हैं कि कालकी अपेक्षा क्षेत्रप्रमाण सूक्ष्म होता है, अतएव 'जो स्थूल और अल्प वर्णनीय हो, उसका पहले व्याख्यान करना चाहिये।' इस नियमके अनुसार कालप्रमाण पूर्व और क्षेत्रप्रमाण उसके अनन्तर कहा गया है। इस स्थल पर उन्होंने सूक्ष्मत्वके संबंधमें कुछ आचार्योंकी एक भिन्न मान्यताका उल्लेख किया
परमगुरूवदेसादो जाणिज्जदे।...इदमेत्तियं हीदि ति कधं णबदे? आइरियपरंपरागदजिणोवदेसादो।... अप्पमत्तसंजदाणं पमाणं गुरूवदेसादो बुच्चदे । (पृ. ८९ ) और भी देखिये पृ. १११, ३५१,४०६, ४७१.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org