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________________ जीवराशिका मार्गणास्थानोंकी अपेक्षा प्रमाण-प्ररूपण इस प्रमाण-प्ररूपणमें स्वभावतः पाटकोंको मनुष्योंके प्रमाणके सम्बधमें विशेष कौतुक हो सकता है। इस आगमानुसार सर्व मनुष्योंकी संख्या असंख्यात है। उनमें गुणस्थानोंकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि द्रव्यप्रमाणसे असंख्यात, कालप्रमाणसे असंख्यातासंख्यात कल्पकाल (अवसर्पिणियोंउत्सर्पिणियों) के समय प्रमाण, तथा क्षेत्रप्रमाणसे जगश्रेणीके असंख्यातवें भाग अर्थात् असंख्यात करोड़ योजन क्षेत्रप्रदेश प्रमाण हैं । द्वितीयादि गुणस्थानवी जीव संख्यात हैं, जो इस प्रकार हैं २ सासादन गुणस्थानवी मनुष्य ५२ करोड़ (व मतान्तरसे ५० करोड़) ३ मिश्र , ,, १०४ करोड़ (पूर्वोक्तसे दुगुने) ४ असंयतसम्यग्दृष्टि ,, ,, ७०० करोड़ ५ संयतासंयत ,, ,, १३ करोड़ छठवेसे चौदहवें गुणस्थानतकके मनुष्यों की संख्या वही है जो ऊपर गुणस्थान प्रमाण-प्ररूपणमें दिखा आये हैं, क्योंकि, ये गुणस्थान केवल मनुष्योंके ही होते हैं, देवादिकोंके नहीं। अतः जिनका प्रमाण संख्यात है, ऐसे द्वितीय गुणस्थानसे चौदहवें गुणस्थान तकके कुल मनुष्योंका प्रमाण ५२+१०४+ ७००+१३+तीन कम ९ करोड़, अर्थात् कुल तीन कम आठसौ अठहत्तर करोड़ होता है । आजकी संसारभरकी मनुष्यगणनासे यही प्रमाण चौगुनेसे भी अधिक हो जाता है। मिथ्यादृष्टियोंको मिलाकर तो उसकी अधिकता बहुत ही बढ़ जाती है। जैन सिद्धान्तानुसार यह गणना ढाई द्वीपवर्ती विदेह आदि समस्त क्षेत्रोंकी है जिसमें पर्याप्तकोंके अतिरिक्त निवृत्यपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य भी सम्मिलित हैं। नाना क्षेत्रोंमें मनुष्य गणनाका अल्पबहुत्व इस प्रकार बतलाया गया है अन्तद्वीपोंके मनुष्य सबसे थोड़े हैं । उनसे संख्यातगुणे उत्तरकुरु और देवकुरुके मनुष्य हैं । इसीप्रकार हरि और रम्यक, हैमवत और हैरपवत, भरत और ऐरावत, तथा विदेह इन क्षेत्रोंका मनुष्यप्रमाण पूर्व पूर्वसे क्रमशः संख्यातगुणा है । (देखो पृ. ९९) एक बात और उल्लेखनीय है कि वर्तमान हुंडावसर्पिणीमें पद्मप्रभ तीर्थंकरका ही शिष्य-परिवार सबसे अधिक हुआ है, जिसकी संख्या तीन लाख तीस हजार ३,३०,००० थी। __उपर्युक्त चौदह गुणस्थानों और मार्गणा-स्थानोंमें जीवद्रव्यके प्रमाणका ज्ञान भगवान् भूतबलि आचार्यने १९२ सूत्रोंमें कराया है, जिनका विषयक्रम इस प्रकार है , प्रथम सूत्रमें द्रव्यप्रमाणानुगमके ओघ और आदेश द्वारा निर्देश करने की सूचना देकर दूसरे, तीसरे, चौथे और पांचवें सूत्रों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानके जीवोंका प्रमाण क्रमशः द्रव्य, काल,क्षेत्र और भावकी अपेक्षा बतलाया है। छठवें सूत्रमें द्वितीयसे पांचवें गुणस्थान तकके जीवोंका तथा आगेके सातवें और आठवें सूत्रमें क्रमशः छठे और सातवें गुणस्थानोंका द्रव्य-प्रमाण बतलाया है । उसी प्रकार ९ वें और १० वें सूत्रमें उपशामक तथा ११ वें व १२ वें में क्षपकों और अयोगकेवली जीवोंका तथा १३ ३ व १४ वें सूत्रमें सयोगिकेवलियोंका प्रवेश और संचय-कालकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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