________________
१, २, १७.] दवपमाणाणुगमे णित्यगदिपमाणपरूवणं
[१३३ पडिसेहफलत्तादो । किमर्से विक्खं भसूई परूविज्जदे ? ण, पदरस्स असंखेजदिभागो इदि सामण्णेण वुत्ते तस्स पमाणं किं संखेज्जा सेढीओ भवदि, किमसंज्खजा सेढीओ भवदि इदि जादसंदेहस्स सिस्सस्स णिच्छ यजणणटुं सेढीणं विखंभसूईए पमाणं वुत्तं ।।
दव्य-खेत्त-कालपमाणाणं सव्येसि विक्खं भसूईदो चेव णिच्छओ होदि त्ति काऊण ताव विक्खंभसूईपमाणपरूवणं कस्तामो। अंगुलबग्गमूले विक्खंभसूई हवदि । तं किं भूदमिदि वुत्ते विदियवग्गमूलगुणणेण उबलक्खियं । तं कधं जाणिजदे ? इत्थंभावलक्खणतइयाणिसादो। जहा जो जडाहि सो भुंजदित्ति । अंगुलबग्गमूलमिदि वुत्ते
....................................
संपूर्ण संख्याका प्रतिषेध करना सूत्रमें दिये गये उक्त वचनका फल है।
शंका- यहां पर विष्कंभसूचीका प्ररूपण किसलिये किया गया है ?
समाधान - नहीं, क्योंकि, 'प्रतरका असंख्यातवां भाग' ऐसा सामान्यरूपसे कहने पर उसका प्रमाण क्या संख्यात जगश्रेणियां है, अथवा असंख्यात जगश्रेणियां है, इसप्रकार जिस शिष्यको संदेह हो गया है उसको निश्चय करानेके लिये जगणियोंकी विष्कंभसूचीका प्रमाण कहा है।
विष्कंभसूचीके कथनसे ही द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण और कालप्रमाण, इन सबका निश्चय हो जाता है, ऐसा समझकर पहले विष्कंभसूचीके प्रमाणका प्ररूपण करते हैं
___ सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलमें, अर्थात् सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलका आश्रय लेकर, विष्कभसूची होती है । वह सूच्यंगुलका प्रथम वर्गमूल किसरूप है, ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं कि सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलके गुणासे उपलक्षित है। अर्थात् सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलको उसीके द्वितीय वर्गमूलसे गुणित कर देने पर सामान्य नारक मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कंभसूची होती है।
उदाहरण-सच्यंगुल २४२, विष्कंभसूची २, सूच्यंगुलका प्रथम वर्गमूल २, सूच्यं.
गुलका द्वितीय वर्गमूल २, २४२ = २ विष्कंभसूची। शंका-यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-'विदियवग्गमूलगुणिदेण' सूत्रके इस पदमें आये हुए इत्थंभावलक्षण तृतीया विभक्तिके निर्देशसे यह जाना जाता है कि यहां पर सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलसे
१ गुणिदेणेत्ति णेदं तदियाए एगवयणं किं तु सत्तमीए एगवयणेण पदमाए वयणेण वा होदव्वमण्णहा सुत्तसंबंधाभावादो । धवला (खुद्दाबंध) पत्र ५१८. अ.
२ इत्थंभूतलक्षणे । २।३।२१ पाणिनि । कंचित्प्रकारं प्राप्तस्य लक्षणे तृतीया स्यात् । जटाभिस्तापसः। जटाशाप्यतापसत्वविशिष्ट इत्यर्थः । वृत्तिः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org