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________________ १३४ ] छक्वंडागमे जीवाणं [ १, २, १७. पदरंगुलस्स घणंगुलस्स वा वग्गमूलस्स गहणं कधं णो पावदे ? ण, 'अट्ठरूवं वग्गिज्जमाणे वग्गिज्जमाणे असंखेज्जाणि वग्गट्ठाणाणि गंतूण सोहम्मीसाणविक्खभसूई उप्पज्जदि। सा सई वग्गिदा जेरइयविक्खंभसूई हवदि। सा सई वग्गिदा भवणवासियविक्खंभमूई हवदि । सा सई वग्गिदा घणंगुलो हवदि ' त्ति परियम्मवयणादो णव्वदे घण-पदरंगुलाणं वग्गमूलस्स गहणं ण हवदि किंतु सूचि अंगुलबग्गमूलस्लेव गहणं होदि त्ति, अण्णही घणंगुलविदियवग्गमूलस्स अणुप्पत्तीदो। संपहि सूचिअंगुलविदियवग्गमूलं भागहार गुणित प्रथम वर्गमूल लिया है। जैसे, 'जो जटाओंसे युक्त है वह तपस्वी भोजन करता है। यहां पर इत्थंभावलक्षण तृतीया निर्देश होनेसे जटाओंवाला यह अर्थ निकल आता है, उसीप्रकार प्रकृतमें भी समझ लेना चाहिये। शंका-'अंगुलका वर्गमूल' ऐसा सामान्य कथन करने पर उससे प्रतरांगुलके वर्गमूल अथवा घनांगुलके वर्गमूलका ग्रहण क्यों नहीं प्राप्त होता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, 'आठका उत्तरोत्तर वर्ग करते हुए असंख्यात वर्गस्थान जाकर सौधर्म और ऐशानसंबन्धी विष्कंभसूची प्राप्त होती है। उसका (सौधर्मद्विकसंबन्धी विष्कंभसूचीका) उसीसे वर्ग करने पर नारक सामान्यसंबन्धी विष्कंभसूची प्राप्त होती है। उसका (नारकसंबन्धी विष्कंभसूचीका ) उसीसे वर्ग करने पर भवनवासी देवासंबन्धी विष्कंभसूची प्राप्त होती है। उसका (भवनवासिविष्भसूचीका) उसीसे वर्ग करने पर घनांगुल प्राप्त होता है। इस परिकर्मके वचनसे जाना जाता है कि प्रकृतमें घनांगुल और प्रतरांगुलके वर्गमूलका ग्रहण नहीं किया है, किन्तु सूच्यंगुलके वर्गमूलका ही ग्रहण किया है। यदि ऐसा न माना जाय तो सामान्य नारक विष्कंभसूचीको जो घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलप्रमाण कहा है वह नहीं बन सकता है। विशेषार्थ-ऊपर जो परिकर्मका उद्धरण दिया है उससे स्पष्ट पता लग जाता है कि सामान्य नारकविष्कंभसूची धनांगुलके द्वितीय वर्गमूल प्रमाण है। अब यदि सूत्रमें अंगुल सामान्यका उल्लेख होनेसे उससे हम सूच्यंगुलका ग्रहण न करके प्रतरांगुल या घनांगुलका ग्रहण करें तो पूर्वोक्त सूत्रके अभिप्रायका परिकर्मके वचनके साथ विरोध आ जाता है, क्योंकि, उक्त सूत्रका अर्थ करते हुए, यदि हम घनांगुलके प्रथम वर्गमूलका द्वितीय वर्गमूलसे गुणा करने पर सामान्य नारक विष्भसूचीका प्रमाण होता है, ऐसा अर्थ करते हैं तो परिकर्मके उक्त वचनके साथ विरोध है ही। अंगुलका अर्थ प्रतरांगुल करने पर भी यही आपत्ति आती है। हां, अंगुलका अर्थ सूच्यंगुल ले लिया जाता है तो कोई विरोध नहीं आता है, क्योंकि, सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलका द्वितीय वर्गमूलसे गुणा करने पर जो प्रमाण आता है वह घनांगुलके द्वितीय वर्गमूल प्रमाण ही होता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सूत्रमें अंगुलसे सूच्यंगुलका ही ग्रहण करना चाहिये । अब सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलको भागहार करके और सूच्यंगुलको भाजक करके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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