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१३२] छक्खंडागमे जीवहाणं
[१, २, १७. संखेज्जाणताणं णिवारणट्ठमसंखेजवयणं । असंखेज्जाओ सेढीओ इदि सामण्णवयणेण सव्वागाससेढीए गहणं किण्ण पावदे ? ण, तस्स
पल्लो सायर-सूई पदरो य घणंगुलो य जगसेढी ।
लोगपदरो य लोगो अझ दु माणां मुणेयव्वा ॥६५॥ इदि पमाणडगम्मतरे अप्पिदत्तादो। ण च पमाणे परूविज्जमाणे अप्पमाणस्सपवेसो अस्थि, अइप्पसंगादो । अधवा 'मिच्छाइट्ठी दबपमाणेण असंखेजा' इदि बिल्लवयणादो जाणिज्जदे जहा अणंताए सव्यागाससेढीए गहणं णत्थि त्ति । जगपदरस्स असंखेज्जदिभागो इदि किमहूँ ? ण, जगपदरस्स संखेज्जदिभागप्पहुडि उवरिमसव्वसंखा
प्रमाण पूर्वोक्त ही बतलाया है। अब यदि सामान्य नारकियोंकी और मिथ्यादृष्टि नारकियोंकी विष्कभसूची एक मान ली जाती है तो नरकमें गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंका अभाव प्राप्त हो जाता है जो संगत नहीं है। अतएव यहां पर मिथ्यादृष्टि नारकियोंकी जो विष्कंभसूची बतलाई है, यह सामान्य कथन है। विशेषरूपसे विचार करने पर सूच्यंगुलके प्रथम धर्गमूलका द्वितीय वर्गमूलसे गुणा कर देने पर जो नारक सामान्य विष्कंभसूची आवे उसे किंचित् न्यून कर देने पर मिथ्यादृष्टि नारकियोंकी विष्कंभसूची होती है।
संख्यात और अनन्तके निवारण करने के लिये सूत्र में 'असंख्यात' यह वचन दिया है।
शंका-सूत्रमें 'असंख्यात जगश्रेणियां' ऐसा सामान्य वचन दिया है, इसलिये उससे संपूर्ण आकाश-श्रेणियोंका ग्रहण क्यों नहीं प्राप्त होता जाता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, वह श्रेणीप्रमाण
पल्य, सागर, सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल, जगश्रेणी, लोकप्रतर और लोक, इसप्रकार ये आठ उपमाप्रमाण जानना चाहिये ॥ ६५ ॥
इसप्रकार इन आठ प्रमाणोंके भीतर आ जाता है। और जिसका प्रमाणके भीतर प्ररूपण किया गया है उसमें अप्रमाणका प्रवेश नहीं हो सकता है, अन्यथा अतिप्रसंग दोष आ जायगा।
। अथवा, 'नारक मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा असंख्यात हैं' इस पूर्वोक्त वचनसे जाना जाता है कि प्रकृतमें संपूर्ण आकाशकी अनन्त जगश्रेणियोंका ग्रहण नहीं है।
शंका-सूत्रमें 'जगप्रतरका असंख्यातवें भागप्रमाण' यह वचन किसलिये दिया ? समाधान-नहीं, क्योंकि, जगप्रतरके संख्यातवें भागको आदि लेकर उपरिम
चेव णेरड्यमिच्छाइट्ठीणं जीवट्ठाणे परविदा, कधं तेणेदे ण विरम्झदे ? आलावभेदाभावाद।। अस्थदो पूण भेदो अस्थि चेव, सामपणविसंसविक्खंभसूचीणं समाणत्तविरोहादो |xx तम्हा एत्थतणविक्खंभसूची पुण किंचूणघणंगुलविदियवग्गमूलमेत्ता त्ति घेत्तव्वं । धवला (खुद्दाबंध) पत्र ५१८., अ.
१ प्रतिषु ' दुवृणा ' इति पाठः । २पल्लो सायर सूई पदरो य घणंगुलो य जगसेढी। लोयपदरो य लोगो उवमपमा एवमढविहा॥ त्रि. सा.९२.
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