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________________ १, २, १७.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं [ १३१ एकम्हि खेत्तंगुले ओगाहे अणंतदव्वंगुलदसणादो। असंखेज्जासंखेज्जाणं ओसप्पिणिउस्सप्पिणीणं समए सलागभूदे ठवेऊण णेरइयमिच्छाइद्विरासी च ठवेऊण सलागादो एगो समओ अवहिरिज्जदि, णेरइयमिच्छाइद्विरासीदो एगो जीवो अवहिरिज्जदि। एवं पुणो पुणो अवहिरिज्जमाणे सलागरासी रइयमिच्छाइट्ठी च जुगवं णिलुति । अधवा ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ दो वि मिलिदाओ कप्पो हवदि, तेण कप्पेण णेरइयमिच्छाइटिरासिम्हि भागे हिदे जं भागलद्धं तत्तियमेता कप्पा हवंति । एवं कालपमाणं समत्तं । खेत्तेण असंखेज्जाओ सेढीओ जगपदरस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताओ । तासिं सेढीणं विक्खंभसूची अंगुलवग्गमूलं विदियवग्गमूलगुणिदेण ॥१७॥ समाधान -- नहीं, क्योंकि, एक क्षेत्रांगुलमें अवगाहनाकी अपेक्षा अनन्त द्रव्यांगुल देखे जाते हैं। असंख्यातासंख्यात अपसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके समय शलाकारूपसे एक ओर स्थापित करके और दूसरी ओर नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशिको स्थापित करके शलाका राशिमेंसे एक समय कम करना चाहिये और नारक मिथ्याधि जीवराशिमेंसे एक जीव कम करना चाहिये । इसप्रकार शलाकाराशि और नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशिमेंसे पुनः पुनः एक एक कम करने पर शलाकाराशि और नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि युगपत् समाप्त हो जाती हैं। अथवा, अपसर्पिणी और उत्सर्पिणी ये दोनों मिलकर एक कल्पकाल होता है । उस कल्पका नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशिमें भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उतने कल्पकाल नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशिकी गणनामें पाये जाते हैं। इसप्रकार कालप्रमाणका वर्णन समाप्त हुआ। क्षेत्रकी अपेक्षा जगप्रतरके असंख्यातवें भागमात्र असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि है। उन जगश्रेणियोंकी विष्कंभसूची, सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलको उसीके द्वितीय वर्गमूलसे गुणित करने पर जितना लब्ध आवे, उतनी है ॥ १७ ॥ विशेषार्थ- खुद्दाबन्धमें सामान्य नारकियोंके प्रमाण लानेके लिये विष्कंभसूचीका १ सूचिः एकप्रदेशिका पंक्तिः । पञ्चसं. २, १४ स्वी. टी. २ सामण्णा णेरइया धणअंगुलबिदियमूलगुणसेढी । गो, जी. १४२. खेत्तओ असंखेज्जाओ सेढीओ पयरस्स असंखिज्जइभागो तासि णं सेढीणं विक्खंभमूई अंगुलपदमवग्गमूलं बिहअवग्गमूलपडप्पणं । अहव णं अंगुलबिइअवग्गमूलघणपमाणमेचाओ सेटीओ। अनु. सू. १४२. पृ. १८४. एत्थ (खुद्दाबंधे) सामण्णणेरइयाणं वुत्तविक्खंभसूची Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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