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________________ १३० छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, २, १६. त्ति पण्णवण्णद्वत्तादो। किमढे खेत्तपमाणमइकम्म कालपमाणं वुच्चदे ? ण एस दोसो, 'जदप्पवण्णणीयं तं पुयमेव भाणियव्यं' इदि वयणादो । कथं कालादो खेतं बहुवण्णणिज्जं ? ण, तम्हि सेढि-जगपदर-विक्खंभसूचिपरूवणाणमत्थितादो। के वि आइरिया जं बहुवं तं सुहुममिदि भणंति सुहुमो य हवदि कालो तत्तो सुहुमं खु जायद खेत्तं । अंगुल-असंखभागे हवंति कप्पा असंखेज्जा ॥ ६३ ॥ एदं ण घडदे । कुदो ? दयादो थूलं खेत्तं छडिय दव्यस्स परूवणाण्णहाणुववत्तीदो । कधं दव्वादो खेत्तं थूलं ? वुच्चदे सुहुमं तु हवदि खेत्तं तत्तो सुहुमं खु जायदे दव्यं । दव्वंगुलम्हि एक्के हवंति खेत्तंगुलाणंता ॥ ६४ ॥ दव्व-खेत्तंगुले परमाणुपदेसा आगासपदेसा च सरिसा ति णेदं घडदे ? चे ण, बातका शान कराना कालकी अपेक्षा प्ररूपण करनेका प्रयोजन है। शंका-क्षेत्रप्रमाणका उल्लंघन करके पहले कालप्रमाणका प्ररूपण किसलिये किया जा रहा है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, 'जो अल्पवर्णनीय होता है उसका पहले वर्णन करना जाहिये' इस वचनके अनुसार पहले कालप्रमाणका प्ररूपण किया है। शंका-कालसे क्षेत्र बहुवर्णनीय कैसे है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, क्षेत्रमें जगश्रेणी, जगप्रतर और विष्कम्भसूचीकी प्ररूपणा पाई जाती है, इसलिये कालसे क्षेत्र बहुवर्णनीय है। कितने ही आचार्य ऐसा कहते हैं कि जो बहुत अर्थात् बहुत प्रदेशोंसे उपचित होता है वह सूक्ष्म होता है । यथा काल सूक्ष्म होता है और क्षेत्र उससे भी सूक्ष्म होता है, क्योंकि, एक अंगुलके असंख्यातवें भागमें असंख्यात कल्पकाल आ जाते हैं । अर्थात् एक अंगुलके असंख्यातवें भागके जितने प्रदेश होते हैं असंख्यात कल्पकालके उतने समय होते हैं ॥ ६३ ॥ परंतु उन आचार्योंका यह व्याख्यान घटित नहीं होता है, क्योंकि, द्रव्यसे क्षेत्र स्थूल है, इस बातको छोड़कर ही पहले द्रव्यप्रमाणको प्ररूपणा बन सकती है, अन्यथा क्षेत्रप्रमाणके प्ररूपणके पहले द्रव्यप्रमाणकी प्ररूपणा नहीं बन सकती है। शंका-द्रव्यसे क्षेत्र स्थूल कैसे है ? समाधान-क्षेत्र सूक्ष्म होता है और उससे भी सूक्ष्म द्रव्य होता है, क्योंकि, एक द्रव्यांगुलमें (गणनाकी अपेक्षा) अनन्त क्षेत्रांगुल पाये जाते हैं ॥ ६४॥ शंका-एक द्रव्यांगुल और एक क्षेत्रांगुलमें परमाणुप्रदेश और आकाश-प्रदेश समान होते हैं, इसलिये पूर्वोक्त व्याख्यान घटित नहीं होता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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