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________________ १, २, २७.] दव्वपमाणाणुगमे तिरिक्खगदिपमाणपरूवणं [२२५ अवहारकालो आगच्छदि । एवं संखेज्जासंखेजाणतेसु णेयव्वं । घणाघणे वत्तइस्लामो । आवलियाए असंखेजदिभाएण पदरंगुलउवरिमवग्गं गुणेऊण तेण घणंगुलउपरिमवग्गस्सुवरिमवग्गं गुणेऊण घणाघणंगुल उवरिमवग्गे भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइटिअवहारकालो आगच्छदि। तं जहा- घणंगुलउवरिमवग्गस्सुवरिमग्गेण घणाघणंगुलउवरिमवग्गे भागे हिदे घणंगुलउवरिमवग्गो आगच्छदि । पुणो पदरंगुलउवरिमवग्गेण घणंगुल उवरिमवग्गे भागे हिदे पदरंगुलमागच्छदि । पुणो आवलियाए असंखेज्जदिभाएण पदग्गुले भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइडिअवहारकालो आगच्छदि । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइट्ठिअवहारकालो आगच्छदि। पदरंगुलस्स घणंगुलस्स घणाघणंगुलपढमवग्गमूलस्स चासंखेज्जदिभागेण पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइटिअवहारकालेण गहिदगहिदो गहिदगुणगारो वत्तव्यो । एदेण अवहारकालेण जगसेढिम्हि भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइद्विविक्खंभसई आगच्छदि । जहा जेरइयमिच्छाइडिअवहारकालस्स खंडिदादिपरूवणा कदा तहा एदिस्से विक्खंभसूईए खंडिदादिपरूवणा कायव्वा । एदेण अवहारकालेण जगपदरे भागे हिदे पंचिदियतिरिक्खमिच्छाइदिन्धमागच्छदि । एत्थ खंडिद आता है। इसीप्रकार संख्यात, असंख्यात और अनन्तस्थानों में ले जाना चाहिये। अब घनाघनमें गृहीत उपरिम विकल्प बनलाते हैं-आवलीके असंख्यातवें भागसे प्रतरांगुलके उपरिम वर्गको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे घनांगुलके उपरिम धर्मके उपरिम वर्गको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे घनाघनांगुलके उपरिम वर्गके भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि अवहारकालका प्रमाण आता है। उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है- धनांगुलके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गसे घनाघनांगुलके उपरिम वर्गके भाजित करने पर घनांगुलका उपरिम वर्ग आता है। पुनः प्रतरांगुलके उपरिम वर्गसे घनांगुलके उपरिम वर्गके भाजित करने पर प्रतगंगुल आता है। पुनः आवलीके असंख्यातवें भागने प्रतरांगुलके भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिथंच मिथ्यादृष्टि अवहारकालका प्रमाण आता है। उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हों उतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि भवहारकालका प्रमाण आता है। प्रतरांगुलके असंख्यात भागरूप, घनांगुलके असंख्यातवें भागरूप और घनाघनांगुलके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भागरूप पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि अवहारकालके द्वारा गृहीतगृहीत और गृहीतगुणकारका कथन (पहलेके समान) करना चाहिये। इस अवहारकालसे जगश्रेणीके भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूचीका प्रमाण आता है। पहले जिसप्रकार नारक मिथ्यारष्टि विष्कभसूचीके खंडित आदिककी प्ररूपणा कर आये हैं, उसीप्रकार इस विष्कभसूचीके खंडित आदिकका प्ररूपण करना चाहिये। पूर्वोक्त भवहारकालसे जगप्रतरके भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यच मिथ्याधि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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