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________________ २२६ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, २, २८. भाजिद - विरलिद - अवहिद- पमाण-कारण- णिरुत्ति - वियप्पा जहा णेरइयमिच्छाइट्ठिदव्वपरूवणाए परूविदा तहा परूवेयव्वा । सास सम्माइट्टिप्पहुडि जाव संजदासंजदा त्ति तिरिक्खोघं ॥ २८ ॥ एदस्य सुत्तस्स जहा तिरिक्खोघगुण पडिवण्णपमाणपरूवणसुत्तस्स वक्खाणं कदं तहा कायव्वं । तिरिक्खेसु पंचिदिए मोत्तूण अण्णत्थ गुणपडिवण्णजीवाणं संभवाभावादो । एवं पंचिदियतिरिक्खपरूवणा समत्ता । संपहि पज्जत्तणामकम्मोदय पंचिंदियतिरिक्ख पमाणपरूवणं हवदिपंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तमिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा' ॥ २९ ॥ एत्थ पंचिदियहणं एइंदिय - विगलिंदियबुदासङ्कं । तिरिक्खणिद्देसो देव-रइयमणुसवुदासो । पज्जत्तणिद्देसो अपज्जत्तबुदासट्टो । मिच्छाइट्टिणिद्देसेण सेसगुणड्डाण - द्रव्यका प्रमाण आता है । खंडित, भाजित, विरलित, अपहृत, प्रमाण, कारण, निरुक्ति और विकल्पका प्ररूपण जिसप्रकार नारक मिथ्यादृष्टि द्रव्यकी प्ररूपणा के समय कर आये हैं उसीप्रकार यहां पर उन सबका प्ररूपण करना चाहिये । सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर संयतासंयत गुणस्थानतक पंचेन्द्रिय तिर्यच प्रत्येक गुणस्थानमें सामान्य तिर्यंचों के समान पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं ॥ २८ ॥ जिसप्रकार सामान्य तिर्यचोंमें गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंके प्रमाणके प्ररूपण करनेवाले सूत्रका व्याख्यान कर आये हैं उसीप्रकार इस सूत्रका व्याख्यान करना चाहिये, क्योंकि, तिर्यचोंमें पंचेन्द्रिय जीवोंको छोड़कर दूसरे तिर्यंचों में गुणस्थानप्रतिपन्न जीव संभव नहीं हैं । इसप्रकार पंचेन्द्रिय तिर्येच प्ररूपणा समाप्त हुई । अब जिनके पर्याप्त नामकर्मका उदय पाया जाता है ऐसे पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यचोंके प्रमाणका प्ररूपण करते हैं पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त मिध्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ॥ २९ ॥ सूत्रमें एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियोंके निराकरण करनेके लिये पंचेन्द्रिय पदका ग्रहण किया है । देव, नारकी और मनुष्योंके निराकरण करनेके लिये तिर्यच पदका निर्देश किया है। अपर्याप्त जीवोंके निराकरण करनेके लिये पर्याप्त पदका निर्देश किया है । सूत्रमें मिथ्यादृष्टि १xx पुण्णा तिगदिहीणया XX पंचिंदियपुण्णतेरिक्खा । गो. जी. १५४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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