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________________ २८ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, २, ३. एदं वक्खाणं ण घडदे । कुदो ? खेत्तादो दव्त्रस्स परूवणपसंगादो । तं कथं ? एकहि दव्वंगुले अणतपरमाणुपदेसेहि णिष्फण्णे एगं खेत्तंगुलमोगाहे, गणणं पटुच अताणि खेत्तंगुलाणि होंति त्ति । सुमं तु हवदि खेत्तं तत्तो य सुहुमदरं हवदि दव्वं । खेत्तंगुला अणंता एगे दव्बंगुले होंति ॥ १८ ॥ इदि ॥ कथं काले मिणिज्जंते मिच्छाइट्ठी जीवा ? अनंताणंताणं ओसप्पिणि-उस्सप्पिसमए ठवेण मिच्छाइट्ठिरासिंच ठवेऊण कालम्हि एगो समयो मिच्छाइट्ठिरासहि एगो जीवो अवहिरज्जदि । एवमवहिरिजमाणे अवहिरिजमाणे सच्चे समया अवहिरिज्जति, मिच्छाइट्ठिरासी ण अवहिरिज्जदि । एत्थ चोदगो भणदि - मिच्छाइट्ठिरासी अवहिरिजद, सच्चे समया ण अवहिरिज्जति त्ति । केण कारणेण ? कालमाहपपरूवय सुत्तदंसणादो । किं तं सुतं ? उच्चदे भाग असंख्यात कल्प होते हैं ॥ १७ ॥ परंतु उनका इसप्रकारका व्यख्यान करना घटित नहीं होता है, क्योंकि, ऐसा मान लेने पर क्षेत्ररूपणा के अनन्तर द्रव्यप्ररूपण का प्रसंग प्राप्त हो जायगा । शंका - यह कैसे ? समाधान - क्योंकि, अनन्त परमाणुरूप प्रदेशोंसे निष्पन्न एक द्रव्यांगुलमें अवगाहनाकी अपेक्षा एक क्षेत्रांगुल ही है, किंतु गणनाकी अपेक्षा अनन्त क्षेत्रांगुल होते हैं, इसलिये 'जो बहुत प्रदेशों से उपचित होता है वह सूक्ष्म होता है' यह कहना ठीक नहीं है । $ क्षेत्र सूक्ष्म होता है और उससे भी सूक्ष्मतर द्रव्य होता है, क्योंकि, एक द्रव्यांगुल में अनन्त क्षेत्रांगुल होते हैं ॥ १८ ॥ शंका - कालप्रमाणकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीवोंका प्रमाण कैसे निकाला जाता है ? समाधान - एक और अनन्तानन्त अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके समयोंको स्थापित करके और दूसरी ओर मिथ्यादृष्टि जीवोंकी राशिको स्थापित करके कालके समय में से एक एक समय और उसीके साथ मिथ्यादृष्टि जीवराशिके प्रमाणमेंसे एक एक जीव कम करते जाना चाहिये । इसप्रकार उत्तरोत्तर कालके समय और जीवराशिके प्रमाणको कम करते हुए चले जाने पर अनन्तानन्त अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के सब समय समाप्त हो जाते हैं, परंतु मिथ्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण समाप्त नहीं होता है । शंका- यहां पर शंकाकारका कहना है कि मिथ्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण भले ही समाप्त हो जाओ परंतु कालके संपूर्ण समय समाप्त नहीं हो सकते है, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि जीवराशिके प्रमाणकी अपेक्षा कालके समयोंका प्रमाण बहुत अधिक है। इसप्रकार से प्ररूपण करनेवाला सूत्र भी देखने में आता है । वह सूत्र कौनसा है इसप्रकार पूछने पर शंकाकार कहता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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