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१, २, ३. ]
दव्यमाणानुगमे मिच्छा इट्ठिपमाणपरूवणं
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अणताणताहि ओसप्पिणि उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति का - लेण ॥ ३ ॥
किमहं खेत्तपमाणमइकम्म कालपमाणं वुच्चदे ? ' जं थूलं अप्पवण्णणीयं तं पुव्वमेव भाणियन्त्रं ' इदि णायादो । कथं कालपमाणादो खेत्तपमाणं बहुवण्णणिज्जं ? वुच्चदेखेत्तपमाणे लोगो परूवेदव्वो । सो वि सेढिपरूवणाए विणा ण जाणिज्जदि त्ति सेढी
वेदव्वा । सावि रज्जुपरूवणाए विणा ण जाणिज्जदि त्ति रज्जू परूवेदव्वा । रज्जू वि सगच्छेदणाहि विणा ण जाणिज्जदित्ति रज्जुच्छेदणा परूवेदव्वा । ताओ वि दीवसागरपरूवणा विणा ण जाणिज्जंति त्ति दीवसागरा परूवेदव्या त्ति । ण च कालपमाणे एवं महंती परूवणा अस्थि, तदो कालादो खेत्तं सुहुममिदि जाणिज्जदे । के वि आइरिया एवं भणति बहुवे हि पदेसेहि उवचिदं सहुममिदि । उत्तं च
( सुमो य हवदि कालो तत्तो य सुट्टमदरं हवदि खेत्तं । अंगुल - असंखभागे हवंति कप्पा असंखेज्जा' ॥ १७ ॥
कालकी अपेक्षा मिध्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के द्वारा अपहृत नहीं होते हैं ॥ ३ ॥
शंका- क्षेत्रप्रमाणको उल्लंघन करके कालप्रमाणका कथन क्यों किया जा रहा है ? समाधान जो स्थूल और अल्पवर्णनीय होता है उसका पहले ही कथन करना चाहिये' इस न्याय के अनुसार पहले कालप्रमाणका कथन किया जा रहा है ।
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शंका - कालप्रमाणकी अपेक्षा क्षेत्रप्रमाण बहुवर्णनीय कैसे है ?
॥ इदि ॥
समाधान- - क्षेत्रप्रमाण में लोक प्ररूपण करने योग्य है । उसका भी जगच्छेणीके प्ररूपणके विना ज्ञान नहीं हो सकता है, इसलिये जगच्छ्रेणीका प्ररूपण करना चाहिये । जगच्छ्रेणीका भी रज्जुके प्ररूपण किये विना ज्ञान नहीं हो सकता है, इसलिये रज्जुका प्ररूपण करना चाहिये । रज्जुका भी उसके अर्धच्छेदों का कथन किये विना ज्ञान नहीं हो सकता है, इसलिये रज्जुके छेदोंका प्ररूपण करना चाहिये । रज्जुके छेदों का भी द्वीपों और सागरोंके प्ररूपणके विना ज्ञान नहीं हो सकता है, इसलिये द्वीपों और सागरोंका प्ररूपण करना चाहिये । परंतु कालप्रमाण में इसप्रकार बड़ी प्ररूपणा नहीं है, इसलिये कालप्रमाणकी प्ररूपणाकी अपेक्षा क्षेत्रप्रमाणकी प्ररूपणा अतिसूक्ष्मरूपसे वर्णित है, यह बात जानी जाती है ।
कितने ही आचार्य ऐसा कथन करते हैं कि जो बहुत प्रदेशों से उपचित होता है वह सूक्ष्म होता है । कहा भी है
कालप्रमाण सूक्ष्म है, और क्षेत्रप्रमाण उससे भी सूक्ष्म है, क्योंकि, अंगुलके असंख्या
१ सहुमो य होइ कालो तत्तो सहुमयरं हवइ खेतं । अंगुल पेटीमेचे ओसप्पिणीओ असंखेम्जा ॥ वि. मा. पृ. २४, गा. २१८.
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