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________________ १, २, ३६.] दव्वपमाणाणुगमे तिरिक्खगदिपमाणपरूवणं [२३७ वग्गस्सुवरिमवग्गेण घणंगुलउवरिमवग्गस्सुवरिमवग्गे भागे हिदे पदरंगुलउवरिमवग्गो आगच्छदि । पुणो पदरंगुलस्स संखेज्जदिभाएण पदरंगुलउवरिमवग्गे भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइट्टि अवहारकालो आगच्छदि । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइटिअवहारकालो आगच्छदि । एवमुवरि जाणिऊण णेयव्वं । पदरंगुलउवरिमवग्गस्स घणंगुलउवरिमवग्गस्स घणाघणंगुलस्स च असंखेज्जदिभावण पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइटिअवहारकालेण गहिदगहिदो गहिदगुणगारो च साहेयव्यो। एदेण अवहारकालेण जगसेढिम्हि भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइट्ठिविक्खंभसूई आगच्छदि । तेणेव जगपदरे भागे हिदे पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइट्ठिदधमागच्छदि । सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव संजदासजदा ति ओघं ॥३६॥ दवट्टियणयमस्सिऊण ओघपरूवणा हवदि । पज्जवट्टियणए पुण अवलंबिजमाणे तिरिक्खोघपरूवणाए पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तोषपरूवणाए वा पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीगुणपडिवण्णपरूवणा समाणा ण हवदि, तिवेदरासीदो इत्थिवेदेगरासिस्स समाणत्ताणुवप्रतरांगुलके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गका घनांगुलके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गमें भाग देने पर प्रतरांगलका उपरिम वर्ग आता है। पुनः प्रतरांगुलके संख्यातवें भागसे प्रतरांगुलके उपरिम वर्गके भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टि अवहारकाल आता है। उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हों उतनीवार उक्त भन्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर भी पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टि अवहारकाल आता है। इसीप्रकार ऊपर जानकर ले जाना चाहिये। प्रतरांगुलके उपरिम वर्गके असंख्यातवें भागरूप, घनांगुलके उपरिम वर्गके असंख्यातवें भागरूप और घनाघनांगुलके असंख्यातवें भागरूप पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टि अवहारकालके द्वारा गृहीतगृहीत और गृहीतगुणकारको साध लेना चाहिये । इस अवहारकालसे जगश्रेणीके भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूची आती है। और उसी अवहारकालसे जगप्रतरके भाजित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टि द्रव्य आता है। ___ सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानमें पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती जीव तियंच-सामान्य प्ररूपणाके समान पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं ॥ ३६॥ द्रव्यार्थिक नयका आश्रय लेकर सासादनसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानवी पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती जीवोंकी प्ररूपणा तिर्यंच सामान्य प्ररूपणाके समान है। परंतु पर्यायार्थिक नयका अवलम्ब करने पर तिर्यंच सामान्य प्ररूपणा अथवा पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त सामान्य प्ररूपणाके समान पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंकी प्ररूपणा नहीं होती है, क्योंकि, तीन वेदवाली राशिसे एक स्त्रीवेदी जीवराशिकी समानता नहीं बन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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