________________
५८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, ५. रूवूणेण गुणिदसयजीवरासिच्छेदणयमेत्ता हवंति । उपरि सवत्थ दोरूवादीणमण्णोण्ण
भत्थरासिणा तिगुणरूवूणेण गुणिदसधजीवरासिच्छेदणयमेत्ता हवंति । एवं संखेज्जासंखेज्जाणंतेसु णेयव्यं । सव्वत्थ दुगुणादिकरणं कायव्यं । एवं कदे अट्ठपरूवणा समत्ता भवदि।
घणाघणे गहिदं वत्तइस्सामो। धुवरामिणा सधजीवरासिउवरिमवग्गस्सुबारिमवग्गं गुणेऊण तेण घणउवरिमवग्गस्सुवरिमवग्गं गुणेऊण तेण घणाघणउवरिमवग्गे भागे हिदे मिच्छाइहिरासी आगच्छदि । केण कारणेण ? घणउवरिमवग्गस्सुवरिमवग्गेण घणाघणउवरिमवग्गे भागे हिदे घणउवरिमवग्गो आगच्छदि । पुणो वि सव्वजीवरासिउवरिमवग्गस्सुवरिमवग्गेण घणउपरिमवग्गे भागे हिदे सयजीवरासिउवरिमवग्गो आगच्छदि । पुणो वि धुवरासिणा सव्व जीवरासिउवरिमवग्गे भागे हिदे मिच्छाइहिरासी आगच्छदि । एवमागच्छदि त्ति कट्ठ गुणेऊण भागग्गहणं कदं । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते
जीवराशिके अर्धच्छेदोंको गुणित करने पर जो संख्या आवे उतने उक्त भागहारके अर्धच्छेद होते हैं।
उदाहरण-२ = २४३ = ६ - १ = ५४४ = २० अर्धच्छेदः पर अन्तिम ११३ होगा।
ऊपर सर्वत्र दो संख्या आदिका परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसे त्रिगुणित करके और उस त्रिगुणित राशिमेंसे एक कम करके शेष राशिसे संपूर्ण जीवराशिके अर्धच्छेदोंको गुणित करने पर अर्धच्छेदोंका प्रमाण होता है। इसीप्रकार संख्यात असंख्यात और अनन्त स्थानों में भी लगा लेना चाहिये । सर्वत्र द्विगुणादिकरण भी करना चाहिये । इसप्रकार करने पर घनधारा समाप्त होती है।
अब घनाघनधारामें गृहीत उपरिम विकल्पको बतलाते हैं-ध्रुवराशिसे संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गको गुणित करके जो लब्ध आवे उससे जीवराशिके घनके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गको गणित करके जो लब्ध आवे उसका घनाघनके उपरिम वर्गमें भाग देने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है, क्योंकि, घनके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गका घनाघनके उपरिम वर्गमें भाग देने पर घनका उपरिम वर्ग आता है। फिर संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गका घनके उपरिम वर्गमें भाग देने पर संपूर्ण जीवराशिका उपरिम वर्ग आता है। फिर ध्रुवराशिका संपूर्ण जीवराशिके उपरिम वर्गमें भाग देने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है। घनाघनधारामें इसप्रकार मिथ्यादृष्टि जीव. राशि आती है, ऐसा समझकर पहले गुणा करके अनन्तर भागका ग्रहण किया है। उदाहरण-१६३ ४ १६३ ४ १६३ = ६८७१९४७६७३६;
६८७१९४७६७३६ -१३ मिथ्यादृष्टि, ६५५३६४ २०६४ १६७७७२१६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org