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________________ १, २, ५.] दव्वपमाणाणुगमे मिच्छाइद्विपमाणपरूवणं [५९ रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि मिच्छाइहिरासी आगच्छदि । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणया केत्तिया ? एगरूवं विरलेऊण विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थरासिणा णवगुणरूवूणेण सधजीवरासिच्छेदणए गुणिदमेत्ता । उवरि सधस्थ चडिदद्धाणसलागाओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थरासिणा णगुणरूवृणेण गुणिदसव्वजीवरासिच्छेदणयमेत्ता भवंति । एवं संखेज्जासंखेज्जाणतेसु णेयव्वं । सव्वत्थ दुगुणादिकरणं पि कायव्वं । एवं कदे घणाघगपरूवणा समत्ता भवदि । गहिदगहिदं वत्तइस्सामो । सयजीवरासिउवरिमवग्गस्स अणंतिमभागेण मिच्छाइढिरासिणा उवरि इच्छिदवग्गे भागे हिदे जो भागलद्धो तेण तम्हि चेव वग्गे भागे हिदे उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हो उतनीवार उक्त राशिके अर्धच्छेद करने पर भी मिथ्यादृष्टि जीवराशि आ जाती है। उदाहरण-उक्त भागहार के ६८ अर्धच्छेद होंगे, पर अन्तिम अर्धच्छेद १३३ होगा। अतः इतनीवार उक्त भाज्य राशिके छेद करने पर लब्ध १३ मिथ्यादृष्टि राशि आती है। शंका- उक्त भागहारके अर्धच्छेद कितने हैं ? समाधान-एकका विरलन करके और उसे दो रूप करके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसे नौ से गुणा करके जो लब्ध आवे उसमें से एक कम करके जो राशि शेष रहे उसे संपूर्ण जीवराशिके अर्धच्छेदोंसे गुणित कर देने पर जो राशि आवे उतने उक्त भागद्वारके अर्धच्छेद हैं। -२-२४९=१८-१= १७४४६८. उG आगे सर्वत्र जितने स्थान ऊपर जावें तत्प्रमाण शलाकाओंका विरलन करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकको दो रूप करके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसे नौसे गुणा करके जो लब्ध आवे उसमेंसे एक कम करके शेष राशिको संपूर्ण जीवराशिके अर्धच्छेदोंसे गुणित कर दे। ऐसा करने पर घनाघनधारामें विवक्षित भागहारके अर्धच्छेद आ जावेंगे । इसीप्रकार घनाघनधाराके संख्यात, असंख्यात और अनन्त वर्गस्थानोंमें भी लगा लेना चाहिये । सर्वत्र द्विगुणादिकरण भी कर लेना चाहिये। इसप्रकार करने पर घनाघनधाराकी प्ररूपणा समाप्त होती है। ___ अब ग्रहीतगृहीत उपरिम विकल्पको बतलाते है-संपूर्ण जीवराशिक उपरिम वर्गके अनन्तिम भागरूप मिथ्यादृष्टि जीवराशिका ऊपर इच्छित वर्गमें भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उसका उसी वर्गमें भाग देने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है। उदाहरण-उपरिम वर्ग २५६ का इच्छित वर्ग ६५५३६, ६५५३६ . १३ ६५५३६, ६५५३६. ६५५३६ .... --१३मिथ्याधि, १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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