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________________ ६०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, २, ५. मिच्छाइद्विरासी आगच्छदि । तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि मिच्छाइहिरासी चेव अवचिट्ठदे । तस्सद्धच्छेदणया केत्तिया ? मिच्छाइट्ठिरासिअद्धच्छेदणएणूणतन्भजिदरासिअद्धच्छेदणयमेत्ता । एवं संखेज्जासंखेज्जाणतेसु णेयव्वं । घेरूवपरूवणा गदा । अदुरूवं वत्तइस्सामो । सव्यजीवरासिघणस्स अणंतिमभागेण उवरि इच्छिदवग्गे भागे हिदे जो भागलद्धो तेण तम्हि चेव वग्गे भागे हिदे मिच्छाइहिरासी आग-' च्छदि। तस्स भागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ते रासिस्स अद्धच्छेदणए कदे वि मिच्छाइहिरासी आगच्छदि त्ति । एवं संखेज्जासंखेज्जाणतेसु णेयव्यं । एवमहरूवपरूवणा गदा । घणाघणे वत्तइस्सामो । घणाघणपढमवग्गमूलस्प अणंतिमभागेण उवरि इच्छिदवग्गे उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हो उतनीवार उक्त राशिके अर्धच्छेद करने पर भी मिथ्याहष्टि जीवराशि ही आती है। उदाहरण-उक्त भागहरके १२ अर्धच्छेद होंगे, पर अन्तिम अर्धच्छेद १३३ होगा। अतः इतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर मिथ्यादृष्टि राशि १३ आती है। शंका-उक्त भागहारके अर्धच्छेद कितने हैं ? समाधान-जिस राशिमें मिथ्यादृष्टि राशिका भाग दिया गया है उसके अर्धच्छेदों से मिथ्यादृष्टि राशिके अर्धच्छेद कम कर देने पर उक्त भागहारके अर्धच्छेद होते हैं । इसीप्रकार संख्यात, असंख्यात और अनन्त वर्गस्थानों में भी लगा लेना चाहिये । इसप्रकार गृहीतगृहीत उपरिम विकल्पमें द्विरूपवर्गधाराकी प्ररूपणा समाप्त हुई। अब गृहीतगृहीत उपरिम विकल्पमें अष्टरूप अर्थात् घनधाराको बतलाते हैं संपूर्ण जीवराशिके घनके अनन्तिम भागका ऊपर इच्छित वर्गमें भाग देने पर जो भाग लब्ध आधे उसका उसी वर्गमें भाग देने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है। उदाहरण-धनराशि ४०९६ का इच्छित वर्ग १६७७७२१६, १६७७७२१६ . १३. १६७७७२१६, १६७७७२१६ . १६७७७२१६ .. ११ १३ १ १७२५६ = १३ मिथ्यादृष्टि. १३ - १२॥ उक्त भागहारके जितने अर्धच्छेद हो उतनीवार उक्त भाज्य राशिके अर्धच्छेद करने पर भी मिथ्यादृष्टि जीवराशि आती है। उदाहरण-उक्त भागहारके २० अर्धच्छेद होंगे पर अन्तिम अर्धच्छेद १३३ होगा। अतः इतनीवार उक्त भज्यमान राशिके अर्धच्छेद करने पर मिथ्यादृष्टि राशि १३ आती है। इसीप्रकार संख्यात, असंख्यात और अनन्त स्थानोंमें भी लगा लेना चाहिये । इसप्रकार गृहीतगृहीत उपरिम विकल्पमें धनधाराकी प्ररूपणा समाप्त हुई । अब घनाघनधारामें गृहीत. गृहीत उपरिम विकल्पको बतलाते हैं भनाधनके प्रथम वर्गमूलके अनन्तिम भागका ऊपर इच्छित वर्गमें भाग देने पर जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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