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________________ १, २, १५१. ] दव्यमाणागमे संजममग्गणापमाणपरूवणं [ ४४९ तेसिं दुण्णयत्तावत्तदो । तदो जे सामाइयसुद्धिसंजदा ते चेय छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा होंति । जे छेदोवट्ठावण सुद्धिसंजदा ते चेय सामाइयसुद्धिसंजदा होंति त्ति । तदो दोहं रासीणमोघत्तं जुज्जदे | परिहारसुद्धिसंजदेसु पमत्तापमत्तसंजदा दव्वपमाणेण केवडिया, संखेज्जा ॥ १५० ॥ ओघसंजदपमाणं ण पावेंति त्ति भणिदं होदि । तो वि ते केत्तिया त्ति भणिदे उच्चदे, तिरूवूण सत्तसहस्समेत्ता हवंति । सुहुमसां पराइय सुद्धिसंजदेसु सुहुमसांपराइय सुद्धिसंजदा उवसमा खवा दव्वपमाणेण केवडिया, ओघं ॥ १५१ ॥ एत्थ एगं सुहुमसांपराइयग्गहणं अहियारपदुष्पायणहूं, अवरेगं गुणद्वाणणिदेसो । तेसिं पमाणं तिरूवूण - णव सदमेत्तं । वृत्तं च ऐसा नहीं है, क्योंकि, ऐसा मानने पर उनको दुर्णयपनेकी आपत्ति आ जाती है । इसलिये जो सामायिक शुद्धिसंयत जीव हैं, वे ही छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत होते हैं । तथा जो छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत जीव हैं, वे ही सामायिकशुद्धिसंयत होते हैं । अतएव उक्त दोनों राशियोंके ओघपना बन जाता है । परिहारविशुद्धिसंयतों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ।। १५० ।। परिहारविशुद्धिसंयमसे युक्त प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतों का प्रमाण ओघसंयतों के प्रमाणको प्राप्त नहीं होता है, यह इस सूत्रका तात्पर्य है । तो भी उन परिहारविशुद्धिसंयतका प्रमाण कितना है, ऐसा पूछने पर कहते हैं कि वे परिहारविशुद्धिसंयत तीन कम सात हजार होते हैं। सूक्ष्मसांपरायिक शुद्धिसंयतों में सूक्ष्मसां परायिक शुद्धिसंयत उपशमक और क्षपक जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? ओघप्ररूपणा के समान हैं ।। १५१ ॥ इस सूत्र में प्रथमवार सूक्ष्मसपरायिक पदका ग्रहण अधिकारका प्रतिपादन करनेके लिये किया है । और दूसरीवार सूक्ष्मसांपरायिक पदका ग्रहण गुणस्थानका निर्देशरूप किया है । उन सूक्ष्मसां परायिकशुद्धिसंयतों का प्रमाण तीन कम नौ सौ है । कहा भी है १ परिहारविशुद्धिसंयताः प्रमत्ताश्चाप्रमत्ताश्च संख्येयाः । स. सि. १, ८, कमेण सेसतियं सचसहस्सा णवस्य णवलक्खा तीहिं परिहीणा ॥ गो. जी. ४८०. २ सूक्ष्मसाम्पराय शुद्धिसंयताः सामान्योक्तसंख्याः । स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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