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________________ ४४८] छक्खंडागमे जीवहाणं [ १, २, १४९. ण ताव अक्कमेण', विरुद्धेहि भेदाभेदेहि जुगवं ववहाराणुववत्तीदो । अह कमेण, ण सामाइयसुद्धिसंजदा छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा भवंति, एगत्तज्झवसायाणं भेदज्झवसाइत्तविरोहादो। छेदोवट्ठावणासुद्धिसंजदा वि ण सामाइयसुद्धिसंजदा तत्काले भवंति, भेदज्झवसायाणमभेदज्झवसाइत्तविरोहादो। तदो अक्कमेण दोहि णएहि पादिदोघसंजदरासी तत्थेगेण भागेण ओघपमाणं ण पावेदि त्ति ओघत्तं ण जुञ्जदे । अध कदाइ सव्यो' संजदरासी अक्कमेण एकं चिय णयमवलंबिऊण जदि चिट्ठदि त्ति इच्छिञ्जदि, तो एदाओ दुविहसंजदरासीओ सांतराओ हवंति । ण च एवं, कालाणिओगे एदासिं णिरंतरतुवलंभादो । एत्थ परिहारो वुच्चदे । तं जहा- दयट्ठियणए अवलंबिदे सव्वेसिं संजदाणं एकेको चेव जमो होदि ति सामाइयसुद्धिसंजदाणं ओघसंजदपमाणं होदि । पज्जवट्ठियणए अवलंबिदे सव्वेसिं संजदाणं पादेकं पंच पंच जमा हवंति त्ति छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा वि ओघसंजदरासिपमाणं पावेंति तेणेदेसिमोघत्तं जुञ्जदे । ण च एगं चेवैज्झवमाया एयंतेण अप्पप्पणो पडिवक्खणिरवेक्खा, है या अक्रमसे ? अक्रमसे तो हो नहीं सकता, क्योंकि, परस्पर विरुद्ध भेद और अभेद इनके द्वारा एकसाथ व्यवहार नहीं बन सकता है। यदि क्रमसे होता है तो सामायिक शुद्धिसंयत जाव छेदोपस्थापनशुद्धिसंयत नहीं हो सकते हैं, क्योंकि, एकत्वरूप परिणामोंका भेदरूप परिणामोंके साथ विरोध है। उसीप्रकार छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत जीव भी उसी समय सामायिकशुद्धिसंयत नहीं हो सकते हैं, क्योंकि, भेदरूप परिणामोंका अभेदरूप परिणामों के साथ विरोध है। इसलिये अक्रमसे दोनों नयोंकी अपेक्षा ओघसंयतराशि संयममार्गणामें एक भागके द्वारा ओघप्रमाणको प्राप्त नहीं हो सकती है, इसलिये सामायिकशुद्धिसंयतों और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयतोंका प्रमाण ओघप्रमाणपनेको प्राप्त नहीं हो सकता है ? कदाचित् संयतराशि अक्रमसे एक ही नयका अवलम्बन लेकर यदि रहती है, ऐसा आप चाहते हैं, तो ये दोनों संयतराशियां सान्तर हो जाती हैं। परंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि, कालानुयोगमें ये राशियां निरन्तर हैं, ऐसा पाया जाता है ? समाधान-यहां पूर्वोक्त शंकाका परिहार करते हैं। वह इसप्रकार है-द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करने पर सर्व संयमियोंके एक एक ही यम होता है, इसलिये सामायिकशुद्धिसंयतोंके ओघसंयोंका प्रमाण बन जाता है। पर्यार्थिक नयका अवलम्बन करने पर तो सर्व संयमियोंके प्रत्येकके पांच पांच संयम होते हैं, इसलिये छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत भी ओघसंयतराशिके प्रमाणको प्राप्त हो जाते हैं, अतएव, इन दोनों संयतोंके ओघपना बन जाता है। कुछ एक जातिके परिणाम एकान्तसे अपने प्रतिपक्षी परिणामोंसे निरपेक्ष होते हैं, १ प्रतिषु ' अक्कमे' इति पाठः । २ प्रतिघु 'सत्थो' इति पाठः। ३ अ-आप्रत्योः 'एग चद-', क प्रतौ' एगं चेद- 'इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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