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१, २, १४९.] दव्वपमाणाणुगमे संजममग्गणापमाणपरूवणं [४४७
संजमाणुवादेण संजदेसु पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥ १४८॥
एत्थ ओघदव्वादो ण किंचि ऊणमधियं वा अत्थि, भेदणिबंधणविसेसाभावादो । तदो एत्थ ओघत्तं जुञ्जदे।
सामाइय- छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदेसु पमत्तसंजदप्पहुडि जाव आणियट्टिवादरसांपराइयपविट्ठ उवसमा खवा त्ति ओघं ॥ १४९॥
एत्थ वि ओघत्तं ण विरुज्झदे। कुदो ? दयट्ठियणयावलंबणेण पडिगहिदेगजमा सामाइयसुद्धिसंजदा वुच्चंति, ते चेय पज्जवट्ठियणयावलंबणेण ति-चदु-पंचादिभेएण पुविल्लजमं फालिय' पडिवण्णा छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा णाम । तदो दो वि रासीओ ओघरासिपमाणादो ण भिज्जति त्ति ओघत्तं जुञ्जदे ।।
एत्थ चोदगो भणदि- उभयणयावलंबणं किं कमेण भवदि, आहो अक्कमेणेत्ति ?
संयम मार्गणाके अनुवादसे संयमियोंमें प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें जीव ओघप्ररूपणाके समान संख्यात हैं ॥१४८।।
यहां थोघद्रव्यप्रमाणसे कुछ न्यन या अधिक प्रमाण नहीं होता है, क्योंकि, सामान्य प्ररूपणमें भेदका कारणभत विशेषकी अपेक्षा नहीं होती है, इसलिये यहां संयममार्गणामें सामान्यसे ओघपना बन जाता है।
सामायिक और छेदोपस्थापन शुद्धिसंयत जीवोंमें प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिवादरसांपरायिकप्रविष्ट उपशमक और क्षपक गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें जीव ओघप्रमाणके समान संख्यात हैं ॥ १४९ ॥
यहां सामायिक और छेदोपस्थापन शुद्धिसंयतोंमें भी प्रमाणकी अपेक्षा ओघत्व विरोधको प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि, द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करनेकी अपेक्षा जिन्होंने 'मैं सर्व सावधसे विरत हूं' इसप्रकार एक यमको स्वीकार किया है, वे सामायिकशुद्धिसंयत कहे जाते हैं। तथा वे ही जीव पर्यायार्थिक नयके अवलम्बन करनेकी अपेक्षा तीन, चार और पांच आदि भेदरूपसे पहलेके यमको भेद करके स्वीकार करते हुए छेदोपस्थापन शुद्धिसंयत कहे जाते हैं। इसलिये ये दोनों राशियां ओघराशिके प्रमाणसे भेदको प्राप्त नहीं होती हैं, इसलिये ओघपना बन जाता है।
शंका-यहां पर शंकाकार कहता है कि दोनों नयोंका अवलम्बन क्या क्रमसे होता ............
१ संयमानुवादेन सामायिकच्छेदोपस्थापनशुद्धिसंयताः प्रमत्तादयोऽनिवृत्तिबादरान्ताः सामान्योक्तसंख्याः स. सि. १, ८. पमत्तादिचउण्ह जुदी सामायियदुगं । गो. जी. ४८०.
२ प्रतिषु -संजमं पालिय' इति पाठः ।
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