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________________ १, २, १२.] दव्वपमाणाणुगमे खवग-आदिपमाणपरूवणं [९३ खवगसेटिं चडंति । पंचमसमए एगजीवमाई काऊण जा उक्कस्सेण चउरासीदि जीवा त्ति खवगमेढिं चडंति । छट्ठमसमए एगजीवमाई काऊण जा उक्कस्सेण छण्णउदि जीवा त्ति खवगसेढिं चडंति । सत्तमसमए अट्ठमसमए च एगजीवमाई काऊण जा उक्कस्सेण अट्टत्तरसयजीवा त्ति खवगसेढिं चडंति । उत्तं च वत्तीसमट्ठदालं सट्ठी वाहत्तरी य चुलसीई । छण्णउदी अष्टुत्तरसदमटुत्तरसयं च वेदव्यं ॥ ४३ ॥ अद्धं पडुच्च संखेज्जा ॥ १२ ॥ अट्ठसमयसंचिदसव्वजीवे उक्कस्सेणे एगढे कदे अद्भुत्तरछस्सयमेत्तजीवा हवंति । तिस्से मेलावणविहाणं वुच्चदे । तं जहा-अटुं गच्छं हविय चोत्तीसमाई काऊण वारसुत्तरं करिय संकलणसुत्तेण मेलाविदे खवगरासी मिलदि । एत्थ करणगाहा आदि लेकर उत्कृष्टरूपसे बहत्तर जीवतक क्षपकश्रेणी पर चढ़ते हैं। पांचवें समयमें एक जीवको आदि लेकर उत्कृष्टरूपसे चौरासी जीवतक क्षपक श्रेणी पर चढ़ते हैं। छठे समयमें एक जीवको आदि लेकर उत्कृष्टरूपसे छयानवे जीवतक क्षपकश्रेणी पर चढ़ते हैं । सातवें और आठवे समयमें एक जीवको आदि लेकर उत्कृष्टरूपसे प्रत्येक समयमें एकसौ आठ जीवतक क्षपकश्रेणी पर चढ़ते हैं। कहा भी है निरन्तर आठ समयपर्यन्त क्षपक श्रेणी पर चढ़नेवाले जीवों में पहले समयमें बत्तीस, दूसरे समयमें अड़तालीस, तीसरे समयमें साठ, चौथे समयमें बहत्तर, पांचवें समयमें चौरासी, छठे समयमें छयानवे, सातवे समयमें एकसौ आठ और आठवें समयमें एकसौ आठ जीव क्षपकश्रेणी पर चढ़ते हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥ ४३ ॥ कालकी अपेक्षा संचित हुए क्षपक जीव संख्यात होते हैं ॥ १२ ॥ पूर्वोक्त आठ समयों में संचित हुए संपूर्ण जीवोंको एकत्रित करने पर संपूर्ण जीव छहसौ आठ होते हैं। आगे उसी संख्याके जोड़ करने की विधि कहते हैं-आठको गच्छरूपसे स्थापित करके चौतीसको आदि अर्थात् मुख करके और बारहको उत्तर अर्थात् चय करके 'पदमेगेण विहीणं' इत्यादि संकलनसूत्रके नियमानुसार जोड़ देने पर क्षपक जीवोंकी राशिका प्रमाण प्राप्त होता है। उदाहरण-८-१-७,७:२-३३,३३४ १२:४२, ४२+३४ = ७६, ७६४८ =६०८. अब यहां इसी विषयमें करणगाथा दी जाती है १ गो. जी. ६२८. पं. सं. ७९-८०. २ स्वकालेन समुदिताः संख्येयाः। स. सि. १, ८. अद्धाए सयपुहुत्तं । पञ्चसं. २, २४. ३ प्रतिषु 'जीवे ण' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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